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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
योग्यता - योग्यता दोनो प्रधान बनती हैं, तव आदमी उलझ जाता है। कभी योग्यता का बखान होते-होते दोनो प्रधान बनती हैं और उलझन आती है । कभी योग्यता और अयोग्यता दोनो का क्रमिक वखान चलते-चलते दोनों पर एक साथ दृष्टि दौड़ते ही "कुछ कहा नहीं जा सकता" - ऐमी वाणी निकल पड़ती है ।
जीव की सक्रियता और निष्क्रियता पर स्याद् ति, जाति, वक्तव्य का प्रयोग :
मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापार जीव और पुद्गल के संयोग से होता है (1) एकान्त निश्चयवादी के अनुसार जीव निष्क्रिय और अजीव मक्रिय है। मांख्य दर्शन की भाषा में पुरुष निष्क्रिय और प्रकृति सक्रिय है । एकान्त
व्यवहारवादी के अनुसार जीव सक्रिय है और अजीव निष्क्रिय | विज्ञान की भाषा में जीव सक्रिय और अजीव निष्क्रिय है । स्याद्वाद की दृष्टि से जीव सक्रिय भी है, निष्क्रिय भी है और अवाच्य भी I
लब्धि वीर्य या शक्ति की अपेक्षा से जीव की निष्क्रियता सत्य है; करणatra for a अपेक्षा से जीव की सक्रियता सत्य है; उभय धर्मों की अपेक्षा से वक्तव्यता सत्य है ।
गुण-समुदाय को द्रव्य कहते हैं । द्रव्य के प्रदेशों - अवयवो को क्षेत्र कहते हैं । व्यवहार-दृष्टि के अनुसार द्रव्य का आधार भी क्षेत्र कहलाता है । द्रव्य के परिणमन को काल कहते हैं । जिस द्रव्य का जो परिणमन है, वही उनका काल है । घड़ी, मुहूर्त्त आदि काल व्यावहारिक कल्पना है । द्रव्य के गुणशक्ति-परिणमन को भाव कहते हैं । प्रत्येक वस्तु का द्रव्यादि चतुष्टय भिन्नमिन्न रहता है, एक जैसे, एक क्षेत्र में रहे हुए, एक साथ बने, एक रूप-रंग वाले सौ घड़ो में सादृश्य हो सकता है, एकता नहीं। एक घड़े के मृत्-परमाणु दूसरे घड़े के मृत्-परमाणुओं से भिन्न होते हैं। इसी प्रकार अवगाह, परिपमन और गुण भी एक नहीं होते ।
वस्तु के प्रत्येक धर्म पर विधि-निषेध की कल्पना करने से अनन्त त्रिभगिया। या सप्तमंगियाँ होती है किन्तु उसके एक धर्म पर विधि-निषेध की क्ल्पना करने से त्रिभंगी या सप्तभंगी ही होती है **
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