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जैन दर्शन मे प्रमाण मौमांसी
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वनता है । 'है' और 'नही' ये दोनो एक ही वस्तु के दो भिन्न धर्मों द्वारा प्रवर्तित होते हैं। इसलिए वैयधिकरण्य दोष भी स्याद्वाद को नहीं छूता ।
(३) किसी वस्तु में अनन्त विकल्प होते हैं, इसीलिए अनवस्था दोप नही बनता । यह दोप तव बने, जब कि कल्पनाएं अप्रामाणिक हो, सम्भंगिया प्रमाण सिद्ध हैं | इसलिए एक पदार्थ में अनन्त सप्तभंगी होने पर भी यहा टोप नहीं आता । धर्म में धर्म की कल्पना होती ही नहीं । अस्तित्व धर्म है उसमे दूसरे धर्म की कल्पना ही नहीं होती, तब अनवस्था कैसे 2
( ४ ) वस्तु जिस रूप से 'अस्ति' है, उसी रूप से 'नास्ति' नहीं है । इसलिए संकर-दोष भी नही आएगा ४५
(५) अस्तित्व अस्तित्व रूप में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व रूप में। किन्तु अस्तित्व नास्तित्व रूप में और नास्तित्व अस्तित्व रूप में परिणत नही होता ४१ | 'है' 'नहीं' नही बनता और 'नहीं' 'है' नही बनता, इसलिए व्यतिकरदोष भी नहीं आने वाला है ४२ |
(६) स्वाद्वाद में अनेक धर्मों का निश्चय रहता है, इसलिए वह संशय भी नही है । प्रो० श्रानन्दशंकर बापू भाई ध्रुव के शब्दों मे - "महावीर के 1 सिद्धान्त मे बताये गए स्यादवाद को कितने ही लोग संशयवाद कहते हैं, इसे मैं नही मानता । (स्याद्वाद संशयवाद नही है किन्तु वह एक दृष्टिविन्दु हमको उपलब्ध करा देता है । विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिए, यह हमें सिखाता है । यह निश्चय है कि विविध दृष्टिबिन्दुओ द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण रूप मे या नहीं सकती। स्यादवाद (जैनधर्म) पर क्षेत्र करना अनुचित है ।"
(७-८) संशय नहीं तब निश्चित ज्ञान का अभाव — श्रप्रतिपत्ति नही होगी । अप्रतिपत्ति के बिना वस्तु का अभाव भी नही होगा । त्रिभगी या सप्तमंगो
अपनी सत्ता का स्वीकार और पर सत्ता कां अस्वीकार ही वस्तु का वस्तुत्व है ४३ । यह स्वीकार और अस्वीकार' दोनो एकाश्रयी होते हैं। वस्तु में 'स्व' की सत्ता की भांति 'पर' की सत्ता नही हो तो उसका स्वरूप ही नहीं बन सकता । वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते समय अनेक विकल्प करने