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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर अमिन्न । ही हैं, या भिन्न ही है-यह मानना अनाचार है। इन शरीरों की घटक 'वर्गणाएं भिन्न हैं, इस दृष्टि से ये भिन्न भी हैं और एक देश-काल में उपलब्ध होते हैं, इसलिए अभिन्न भी हैं-यह मानना आचार है।/
(८) सर्वत्र वीर्य है, सब सब जगह है, सर्व सर्वात्मक है, कारण में कार्य का सर्वथा सदभाव है या सर्वे में सवकी शक्ति नही है-कारण में कार्य का सर्वथा अभाव है-यह मानना अनाचार है। अस्तिल आदि सामान्य घाँ की अपेक्षा पदार्थ एक सर्वात्मक भी है और कार्य-विशेष गुण आदि की अपेक्षा अ-सर्वात्मक-भिन्न भी है। कारण मे कार्य का सदभाव भी है और असदभाव भी-यह मानना आचार है।
(६) कोई पुरुष कल्याणवान् ही है या पापी ही है-यह नहीं कहना चाहिए। एकान्ततः कोई भी व्यक्ति कल्याणवान् या पापी नहीं होता।/
(१०) जमत् दुःख रूप ही है यह नहीं कहना चाहिए। मध्यस्थ दृष्टि वाले इस जगत में परम सुखी भी होते हैं।
भगवान् महावीर ने तत्व और आचार दोनों पर अनेकान्त दृष्टि से विचार किया। इन पर एकान्त दृष्टि से किया जाने वाला विचार मानससंक्लेश या आग्रह का हेतु बनता है। अहिंसा और संक्लेश का जन्मजान , विरोध है । इसलिए अहिंसा को पल्लवित करने के लिए अनेकान्तदृष्टि परम
आवश्यक है । (आत्मवादी दर्शनों का मुख्य लक्ष्य है-बन्ध और मोक्ष की मीमांसा करना। बन्ध, बन्ध-कारण, मोक्ष और मोक्ष-कारण-यह चतुष्टय अनेकान्त को माते विना घट नहीं सकता। अनेकान्तात्मकता के साथ कम-अक्रम व्याप्त है। क्रम-अक्रम से अर्थ-क्रिया व्यास है। अर्थ-क्रिया से अस्तित्व व्याप्त है। स्यावाद की आलोचना
स्यादवाद परखा गया और कसौटी पर कसा गया। बहुलांश तार्किको की दृष्टि में वह सही निकला । कई तार्किकों को उसमें खामियां दीखी, उन्होंने इसलिए उसे दोषपूर्ण बताया ब्रह्मसूत्रकार व्यास और भाष्यकार शंकराचार्य