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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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हो जाता है, तिर्यञ्च होकर मनुष्य और मनुष्य होकर देव । यह अवस्था चक्र बदलता रहता है । इस दृष्टि से जीव अशाश्वत है । विविध अवस्थाओ में परिवर्तित होने के उपरान्त भी उसकी जीवरूपता नष्ट नहीं होती । इस दृष्टि से वह शाश्वत है । इस प्रतिपादन का आधार द्रव्य और पर्याय ये दो दृष्टियां हैं। गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में वे स्पष्ट रूप में मिलती हैं :गौतम ! जीव स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत । द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत ।
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ये दोनो धर्म वस्तु मे प्रतिपल सम स्थितिक रहते हैं, किन्तु अर्पित मुख्य और अर्पित गौण होता है । "जीव शाश्वत है" - इसमें शाश्वत धर्म मुख्य है और शाश्वत धर्म गौण । "जीव शाश्वत है" इसमें अशाश्वत धर्म मुख्य है और शाश्वत धर्म गौण । यह द्विरूपता वस्तु का स्वभाव-सिद्ध धर्म है । काल-मेद या एकरूपता हमारे बचन से उत्पन्न है । (शाश्वत और अशाश्वत का काल भिन्न नहीं होता । फिर भी हम पदार्थ को शाश्वत या अशाश्वत कहते
- यह अर्पितानर्पित व्याख्या है । पदार्थ का नियम न शाश्वतवाद है और न उच्छेदवाद । ये दोनो उसके सूतत - सहचारी धर्म हैं । भगवान् महावीर ने इन दोनों समन्वित धर्मों के आधार पर अन्य जातीयवाद ( जात्यन्तर - वाद ) की देशना दी। उन्होने कहा - " पदार्थ न शाश्वत है और न अशाश्वत, वह स्यात् शाश्वत है- व्युच्छितिनय की दृष्टि से और स्यात् अशाश्वत हैव्युच्छित्तिनय की दृष्टि से । वह उभयात्मक है, फिर भी जिस दृष्टि (द्रव्य दृष्टि ) से शाश्वत है उससे शाश्वत ही है और जिस दृष्टि (पर्याय -दृष्टि ) से अशाश्वत है उस दृष्टि से अशाश्वत ही है, जिस दृष्टि से शाश्वत है, उसी दृष्टि से शाश्वत नहीं है और जिस दृष्टि से अशाश्वत है उसी दृष्टि से शाश्वत नही
! ( एक ही पदार्थं एक ही काल में शाश्वत और अशाश्वत इस विरोधी
है धर्मयुगल का आधार है, इसलिए वह अनेकधर्मात्मक है। ऐसे अनन्तविरोधीधर्मयुगलो का वह आधार है, इसलिए अनन्तधर्मात्मक है
वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, इसलिए बाह्य भी है - विसदृश भी है, वाह्य भी है, सदृश भी है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विसदृश होता है, इसलिए कि उनके सब गुण समान नही होते । वे दोनों सदृश भी होते हैं इसलिए कि