SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४] . जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा और ही अथवा सुनें कुछ और ही और जानें कुछ और ही, यह कैसे ठीक हो सकता है। इसका उत्तर जैनाचार्य स्यात् शब्द के द्वारा देते हैं। 'मनुष्य स्यात् हैइस शब्दावलि में सत्ता धर्म की अभिव्यक्ति है। मनुष्य केवल 'अस्ति-धर्म' मात्र नहीं है। उसमें 'नास्ति-धर्म' भी है । स्यात्-शब्द यह बताता है कि अभिव्यक्त सत्यांश को ही पूर्ण सत्य मत समझो। अनन्त धर्मात्मक वस्तु ही सत्य है। शान अपने आप में सत्य ही है। उसके सत्य और असत्य-ये दो रूप प्रमेय के सम्बन्ध से बनते हैं। प्रमेय का यथार्थग्राही ज्ञान सत्य और अयथार्थमाही जान असत्य होता है। जैसे प्रमेय सापेक्षज्ञान सत्य या असत्य बनता है, वैसे ही वचन भी प्रमेय सापेक्ष होकर सत्य या असत्य बनता है। शब्द न सत्य है और न असत्य। वक्ता दिन को दिन कहता है, तब वह यथार्थ होने के कारण सत्य होता है और यदि रात को दिन कहे वव वही अयथार्थ होने के कारण असत्य बन जाता है। 'स्यात्' शब्द पूर्ण सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है। एक धर्म की मुख्यता से वस्तु को बताते हुए भी हम उसकी अनन्तधर्मात्मकता को श्रीमल नहीं करते। इस स्थिति को सम्भालने वाला 'स्यात्' शब्द है। यह प्रतिपाद्य धर्म के साथ शेष अप्रतिपाद्य धर्मों की एकता बनाए रखता है। इसीलिए इसे प्रमाण वाक्य या सकलादेश कहा जाता है। विकलादेश और सकलादेश ६वस्तु-प्रधान ज्ञान सकलादेश और गुण-प्रधान ज्ञान विकलादेश होता है। इसके सम्बन्ध मे तीन मान्यताएं हैं। प्रहली के अनुसार समभंगी का प्रत्येक भंग सकूलादेश और विकलादेश दोनो होता है । पूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक भंग विकलादेश होता है और सम्मिलित सातो भंग सकलादेश कहलाते हैं। तीसरी मान्यता के अनुसार पहला, दूसरा और चौथा भंग विकलादेश और शेष सब सकलादेश होते हैं । दिव्य-नय की मुख्यता और पर्याय नय की अमुल्यता से गुणो की अमेदवृत्ति चनती है। उससे स्यादवाद् सकलादेश या प्रमाणवाक्य बनता है। % E
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy