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( ४६ ) अब आया तुम पास मैं स्वामी ऋषभ जिनन्द | कर्मन दुष्ट विनाश दो होय मुक्ति आनंद || ६ || न्यायमत बिनती करे चरणन शीस नमाय । पद पंकज सेऊं सदा और नहीं कछु चाह || ७ ||
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तर्ज़ ॥ कन्हैय्या तेरा कारोरी कैसे व्याहू राधे ॥
कैसे देह धारा जीया तूतो न्यारा ॥ टेक ॥ निराकार चेतन तू कंहिये सब बातों का ज्ञाता | अपना रूप आप नहीं देखा ।
कैसे जिया तूभयारे मतवारा ॥ कैसे० ॥ १ ॥ करता हरता नाम तुम्हारो अलख रूप अविनाशी । न्यामत समझ नहीं कुछ आता । मान लिया कैसे लाल ओर कारा || कैसे ० ॥ २ ॥
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चाल || होली ( चलत चाल )
यही है जैन धर्म की होरी |
सतसंग मिलो मन विरोध तजो | यही० टेक ॥ परस्पर प्रीत करो रे भाई ।
छोड़ो आपस में जोरा जोरी ॥ सतसंग० ॥ १॥ . पर उपकार गुलाल बनाओ ।
दया धरम की खेलिये होरी || सतसंग० ॥ २ ॥ न्यामत ऐसी होरी खेलो ।