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॥ श्री जिनेन्द्रायनमः ॥
तृतीय वाटिका
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तर्ज || इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ||
अपूरब है तेरी महिमा कही हमसे नहीं जाती । तुम्ही सच्चे हितू सबके तुम्ही हरएक के साथी || टेक ॥ पाप जब जग में फैला था गरम बाज़ार हिंसाका । विचारे दीन जीवों को कभी नहीं चैन थी आती ॥ १ ॥ हज़ारों यज्ञ में लाखों हवन में जीव मरते थे । कि जिसको देखकर भर आति थी हरएक की छाती ॥ २ ॥ जगत कल्याण करने को लिया अवतार तब तुमने | सुरासुर चर अचर सबको तेरी बाणी थी मनभाती ॥ ३ ॥ दया का आपने उपदेश दुनिया में दिया आके | वगरने जालिमों के हाथ से दुनिया थी दुख पाती ॥ ४ ॥ जो था पाखंड दुनिया में हुआ सब दूर इकदम में । ध्वजा हरसू नज़र आने लगी जिनमत की लहराती ॥ ५ ॥ जगतकर्ता के और हिंसा के जो झूठे मसायल थे। न्याय परमाण से तुमने किया रद्द सबको इकसाथी ॥ ६ ॥