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पाणी सुपियो । मै मार काठी में घाल्यो रे ॥ प० ॥ ६॥ ऊपर दिनो ढांकणो। छिद्र छेका न राखी कायोरे। काल किता एक पछै जोड्यो । किड़ा दिठा तिण मांह्यो रे । प० ॥ १० ॥ मैं तो जतन किया अति घणा। रखवाला छा बैठार । छिद्र को पड़ियो नहीं। जीव कठिार पैठा रे ॥ ५० ॥ ११ ॥ जीव कोठी में पैसतां । कोठी न पड़यो बारो रे । तो उहांरी श्रद्धा छै खरौ। जीव काया नहौं न्यारी रे । प० ॥ १२॥ गुरु कहै धमिया लोह में दौठो छ । रायो रे । राय कहै दौठो अछ। तो सुदा तू चित लगायो रे । प० ॥ १३ ॥ अग्न सु लोह धमतां थकां। माल घणो जब उठी रे । अग्न लोह में धस गई। श्रा बात सांची के झूठी रे ॥ प० ॥ १४ ॥ राय कहै अग्न तो धस गई। निसरी पारथी पारो रे । गुरु कहै रोजा कोइ लोहरे कोइ पड़ियो छिट्र बघारो रे ॥१०॥१५॥ रोय कहै छिद्र पड़यो नहीं । तब गुरु बोल्यो एमोरे । लोहार छिद्र पड़यो नहीं। तो अग्न पैठी राय के मोर ॥ ५० ॥ १६ ॥ अग्न लोहा में पैसतां । न पड़यो छिद्र लवलेसो रे । तो साठी छिद्र किणा विध पड़े। नीव काया प्रवेशो रे ॥ ५० ॥ १७॥ प्रगट रूप तेल काया रो। तू जाणे लोह में पेठी रे ॥ काठी में जीव