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जैनयालगुटका प्रथम भागा: तत्त्व शब्द का जियादातर अर्थ परमात्मा है परन्तु हमारे जैन मत म जब यह कहा । जाता है कि तत्त्व सात हैं तो यहां तत्त्व शब्द का अर्थ पदार्थ है, जैसे नव पदार्थ
कहते हैं नव में से पुण्य पाप को न गिन कर बाकी को सात तत्त्व इस वास्ते कहते हैं कि तत्व शब्द का अर्थ वो पदार्थ है जिस से परमात्मा का ज्ञान हो सो जिन . पदार्थों से परमात्मा का ज्ञान हो वह पदार्थ सात ही हैं परन्तु यहां इतनी पात: और समझनी है कि पदार्थों की संख्या के विषय में जो सांख्यमत वाले २५ तत्वं मानते हैं नैयायिक वैशेषिक १६ वौध ४ तत्त्व मानतेहैं सोजैनी तत्त्व किस प्रकारसे मानतेहैं इस का उत्तर यह है कि तत्त्वं शब्द का अर्थ जो पदार्थ है सो सामान्य रूप से है
सों जैसे पदार्थ शब्द' में दो पद हैं (पद +अर्थ) अर्थात् पदस्य अर्थाः यानि पदका जो ' अर्थ यही पदार्थ है यहां इतनी बात और जाननी जरूरी है कि जगत में भनत
पदार्थ हैं जैनी सात ही क्यो मानते हैं इस का उत्तर यह है कि इस सात पदार्थों के : अन्दर तमाम पदार्थ अन्तर्गत हैं इन सेवाहर कुछ भी नहीं था जिन वस्तुवों से जिस
के कार्य की सिद्धि हो उसके वास्ते वही पदार्थ कार्यकारी हैं वह उनही पदार्थों को 'पदार्थ कहते हैं जैसेवाज वकत रसोई खाने वाला कहता है आज तो खूबपदार्थ खाए 'इस प्रकार जिनमतमें कार्य मोक्ष की प्राप्ति का है सो मोक्ष की प्राप्ति सात पदार्थों के, .' जानने से होती है और की जरूरत नहीं इस लिये जिनमत में जिन सात पदार्थों से , मोक्ष की सिद्धि हो उन ही सात को तत्त्व माना है स्वर्गादिक की सिद्धि में पुण्य पाप
की भी जकरत पड़ती है इस वास्ते सात से आगे नौ पदार्थ माने हैं वरना अगर । । असलियत की तरफ देखो तो सामान्य रूप से तमाम दुनिया में पदार्थ एक ही रूप है में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो पदार्थ संज्ञा से बाहिर हो पदार्थ, कहने में सर्व वस्तू
आगई अन्यथा जीव और अजीव रूप से दो ही पदार्थ हैं सिवाय जीव के जितनी अंजीव यानि अचेतन वस्तु हैं सब अजीव में आगई । चूंकि जैनमत में अभिप्राय इस जीव को संसार के भ्रमण के दुःखों से छुद्धाय मोक्ष के शास्वते सुन में तिष्ठाने का. हैं तो इस कार्य की सिद्धि के वास्ते प्रयोजन मत जो पदार्थ उन को ही यहां तत्व माने हैं सो मोक्ष की प्राप्ति के लिये सात तत्त्वों का जानना ही कार्य कारी है सो उन के शानका यह तरीका है कि प्रथम तो यह जाने, कि जीव क्या वस्तु है और मजीव पचा वस्तु है, जीव का क्या स्वभावहै, भार अजीव का क्या स्वभाव है, कोकि जब तक जीव अजीवके भेद को न जाने तव तक भजीवसे मिन्न अपने आत्मा का स्वरूप..
कैसे समझे। जब यह दो बात जान जावे तब तीसरी बात यह जाने कि यह जीव । जगत में जामण मरण करता दुवा पंधों फिरे है, सोसका कारण कर्म है लो फिर