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________________ प्राचार्य गरितावली विकार का परिशोध किया था उसने, सत्करणी निर्दोष बताई उसने । सद् गुरण पूजा ही भव तारणहारी ॥ लेकर० ॥१४८।। अर्थ.-लोकाशाह ने दया, दान, पूजा और पोपट की करणी मे आडम्बर एवं उजमणा आदि की प्रणाली को ठीक नही माना । उन्होने कर्मकाण्ड मे आये हुए विकारो का शोधन किया और सर्वसाधारण जन भी सरलता से कर सके,वैसी निर्दोष प्रणाली स्वीकार की। उन्होने पूजनीय के सद्गुरगो की ही पूजा को भवतारिणी मानी। प्रारम्भ को धर्म का अग नही माना क्योकि पूर्वाचायो ने "प्रारम्भे नत्यि दया" इस वचन से हिसा रूप प्रारम्भ मे दया नही होती यह प्रमाणित किया ॥१४८।। लावरणी।। शास्त्र वाचते जगा बोध मन माहीं, नाम, रूप या द्रव्य की पूजा नाही। सगुण ही पूजा का कारण मानो, परंपरा में बढ़ा रोष मत छानो। महिमा इसकी हुई जगत् मे जहारी ॥ लेकर० ॥१४॥ '. अर्थः-शास्त्र का वाचन करते हुए लोकाशाह को वोध हुआ। उन्होंने समझा कि वस्तु के नाम, रूप या द्रव्य पूजनीय नहीं है । पूजनीय तो वास्तव मे वस्तु के सद्गुण हैं । लोकाशाह की इस परम्परा विरोधी नीति से लोको मे रोप वढ़ना सहज था । गच्छवासियो ने शक्ति भर इनका विरोध किया पर ज्यो ज्यों विरोध बढता गया त्यो त्यो उनकी ख्याति व महिमा भी बढती गई। जो अल्पकाल मे ही देश-व्यापी हो गई। गुजरात. पजाव, उत्तर प्रदेश और राजस्थान मे चारो और लोकागच्छ का प्रचार व प्रसार हो गया।।१४ लोकाशाह के मतव्य की उपादेयता इसी से प्रमाणित है कि अल्पतम समय मे ही उनके विचारों का सर्वत्र आदर हुआ।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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