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आचार्य चरितावली
हुए भक्तजन साथ संघ को तोड़ा, सतरागी हो अर्थ शास्त्र का मोड़ा || भोग रहे फल हम उसका भयकारी || लेकर० ॥ १२६ ॥
अर्थ - इस प्रकार वीर निर्वारण सवत् ६०६ मे वेताम्बर और दिगम्बर रूप से श्रमरणसघ के दो टुकड़े हो गये । मतरागी होकर दोनो ने शास्त्र के अर्थ को अपने अनुकूल मोड लिया । प्रग्रहवण जिन शासन के मर्म को भूलकर एकान्त पकड वैठे। उसी का कटु फल ग्राज हम सम्प्रदायभेद के रूप मे भोग रहे है । वास्तव मे तो जिन शासन ने मूर्च्छा को परिग्रह का मूल माना है ।। १२६॥
॥ लावणी ॥
पट - धारण एकान्त परिग्रह जाना, नारी को सम्पूर्ण त्याग नही माना । बहन उत्तरा को गणिका पट दीना, कोट्टवीर कोडिन्य शिष्य दो कीना । भाष्य ग्रन्थ में लिखा हाल विस्तारी || लेकर० ॥१३०॥
अर्थ - शिवभूति ने वस्त्रधारण को एकान्त परिग्रह मान कर साधु के लिये उसका सर्वथा निषेध किया । गुरु ने समझाया कि सम्पूर्ण निषेध जिनकल्पी के लिये होता है और वर्तमान मे सहनन की दुर्बलता से जिन कल्प विच्छेद है | तीर्थकर भगवान् भी देवदूष्य वस्त्र रख कर यह प्रगट करते है कि जिन शासन एकान्त सवस्त्रवाढी या अवस्त्रवादी नही है ।
इतना कहने पर भी शिवभूति की समझ में बात नही आई और वे नग्न होकर जगल मे चले गये । शिवभूति के स्नेह से उसकी वहन 'उत्तरा' भी साध्वी हो गई थी । जब वह वदन के लिये उद्यान में गई और भाई को पूर्ण ग्रचल देखा तो उसने भी वस्त्र त्याग दिये । भिक्षा के समय नगर की एक वेश्पा ने उसको नग्न देखा तो उसने उस साध्वी को साडी पहना दी । शिवभूति के कोडिन्य और कोट्टवीर दो शिष्य हुए। इस प्रकार शनै ने दिगम्वर परम्परा का प्रचार बढ़ता गया । शिवभूति के बदले