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प्राचार्य चरितावली
अर्थ - पुत्रवधू की बात सुनकर सासू ने कहा- "बेटी चिता की कोई वात नही । तुम दस बजे बाद द्वार बंद कर देना । ग्राज तुझे प्रतीक्षा मे वैठे रहने की प्रावश्यकता नही हे । मे जागूंगी और जब शिवभूति प्रावेगा तो उससे बात करू गी ।"
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सासू के कथनानुसार पुरोहितानी सो गई । प्रतिदिन की भाँति अर्द्धरात्रि के वाद शिवभूति ने ग्राकर द्वार खटखटाया पर मा ने दरवाजा नही खोला ।
पुकारने पर वह वोली - " इतनी रात जिनके द्वार खुले हो वही जानो । मेरे यहाँ इस तरह वे समय ग्राने वाले के लिये
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स्थान नही है"
।।१२५।।
॥ लावणी ॥
दीक्षा ले कर गुरु सग जनपद जावे, विचरत सहसा फिर उस पुर मे श्रावे । हर्षित हो राजा ने भेट दिलायी, मुनि ने उसको श्रादर से रखवाया । मूल्यवान् पट पर थी ममता भारी ॥ ले कर० ॥ १२६ ॥ ॥
दीक्षा
अर्थ - मा के उत्तर से निराश हो कर शिवभूति लौट पड़े और नगर मे घूमते हुए जैन उपाश्रय का द्वार खुला देखा तो वे वहाँ गये और श्रार्य कृष्ण के पास उपदेश श्रवरण कर दीक्षित हो, ग्रामान्तर की ओर दूसरे दिन विहार कर गये । फिर विचरते हुए एकदिन सहसा रथवीरपुर प्राये । राजा को मालूम हुआ तो हर्पित हो उसने मुनि को वंदना की और एक बहुमूल्य रत्न कम्बल मुनि को भेट रूप मे अर्पण किया। मुनि ने भी राजा की भेट को प्रादर से स्वीकार किया । अधिक मूल्यवान् होने से मुनि की उस पर ममता रहने लगी, अत: उन्होने बड़ी हिफाजत से उसको वाध कर रखा
॥१२६॥
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