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________________ आचार्य चरितावलो ने भी आवेश मे आ कर वैशेषिक मत प्रारम्भ किया, जिसका अपर नाम "पडलूक" है। इनके मत मे द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय ऐसे छ ही द्रव्य माने गये है ।।१११॥ लावरगी। द्रव्य गुरणादिक तत्त्व षटक वो माने, महोदय से सत्य मर्म नहिं जाने । वीर काल शत पंच अठचालिस जानो, गये स्वर्ग श्रीगुप्तसूरि बलहानो। रोहगुप्त ने मिथ्या मत विस्तारी ॥लेकर०॥११२।। अर्थः-द्रव्य गुणादिक छ ही तत्त्व उसने मान्य किये । मोह कर्म के प्रवल उदय से उसने धर्म के सही मर्म को नहीं समझा। वोर निर्वाण सवत् ५४८ मे जव प्राचार्य श्रीगुप्त का स्वर्गवास हो गया तव शासन का वल कमजोर हुआ और रोहगुप्त को मिथ्या मत के प्रचार का खुलकर अवसर मिला ।।११२॥ सातवां निन्हव ।। लावणी ।। सप्तम निन्हव गोष्ठामाहिल जानो, वर्ष पांच सौ चौरासी पहिचानो। पूर्व बांचते अवद्धदृष्टी आई, बधभेद में सहज समझ नहीं पाई। रक्षित के शासन में शंका भारी लेकर०॥११३।। अर्थः-आर्य वज्र और वज्रसेन के वोच के काल मे आर्य रक्षित और दुर्वलिका पुप्यमित्र नामक दो युग प्रधान प्राचार्य हुए। , आवश्यक वृत्ति के अनुसार इनके स्वर्गवास के बाद वीर संवत् ५८४ मे सातवे निन्व गोष्ठा माहिल की उत्पत्ति हुई । पूर्व का वाचन करते हुए
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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