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प्राचार्य चरितावली
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उस समय के निन्हव
।। राधे० ॥ रोहगुप्त की बात कहू' अब, कैसे मन में भ्रान्ति हुई। सत्य मार्ग पर नहि पाने से, मिथ्या मत की वृद्धि हुई ।।१६॥ .
अर्थ:-आर्य रोहगुप्त के मन में कैसे भ्रान्ति हुई और समझाने पर भी सत्य मार्ग पर नही आने से कैसे मिथ्या मत की वृद्धि हुई, यह बताया जा रहा है ॥१६॥
|| लावणी || आर्यगुप्त के शिष्य बड़े कई ज्ञानी, रोहगुप्त ने की अपनी मनमानी । वर्ष पांच सौ चमालीस की वेला, अंतरंजिकापुर में हो गया मेला ।
योट्टशाल से चर्चा की की तैयारी ॥ले कर०॥१०॥ अर्थः-आर्यगुप्त के अनेक ज्ञानी ध्यानी शिष्य हुए, उनमे एक रोहगुप्त भी थे, जिनने अपनी मनमानी की । वीर संवत् ५४८ मे अतरंजिका नगरी मे परिव्राजक पोट्टशाल ने चर्चा का आह्वान किया। नगर मे उसके पांडित्य की महिमा और शास्त्रार्थ की वात फैली तो कुतूहलवश चारो और लोगो का वडा मेला सा लगा रहने लगा ||१०५।।
|| लावणी ।। भूप बलश्री था नगरी का नायक, श्री गुप्त पधारे विचरते वहां सुनिनायक । ग्रामान्तर से आर्य रोह चल पाये, परिव्राजक का पड़ह मान्य करवाये।
आकर गुरु से कही बात जब सारी ले कर०॥१०६ अर्थः -- महाराज वलथी अंतरजिका - के प्रजापालक शासक थे। संयोगवश आचार्य श्री गुप्त भी विचरते हुए वहां पधार गये। उस समय