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________________ • श्राचार्य चरितावलो ३७ अर्थ - विक्रम राजा ने प्रसन्न हो कर सिद्धसेन को कुछ सुवर्णादि भेट किये । परन्तु सिद्धसेन ने "किसी ऋणपीडित नागरिक को दिया जाय, जो इसका अर्थी हो" यह कह कर उसे टाल दिया । उन्होने विक्रम को जिन मार्ग समझाया और फिर वहाँ से चल कर चित्रकूट चित्तौड़ पहुचे | सिद्धसेन से प्रतिवुद्ध हो विक्रम ने प्रजाजनो का जो उपकार किया वह प्रसिद्ध है ॥ लावणी ॥ विद्या ले मुनि कूर्मापुर चल श्राये, देवपाल नृप का रक्षरण करवाये । सिद्धसेन मुनि 'दिवाकर' पद शोभावे, भूपति भी नितप्रति दर्शन को जावे । राजमान्य हो, रहे वहीं प्रियकारी ॥ लेकर० ॥७०॥ अर्थः- चित्रकूट के जयस्तम्भ को देखकर सिद्धसेन को आश्चर्य हुआ। स्तंभ को सूघ सूघ कर उन्होने परीक्षण किया और एक लेप द्वारा स्तंभ का मुख उघाड़ कर भीतर से एक पुस्तक प्राप्त की । उसमे सुवर्ण सिद्धि और सरसवी नाम की दो विद्याएँ थी । विद्या ग्रहरण कर मुनि कूर्मापुर आये, वहा का राजा देवपाल, जिसको विरोधी राजा ने घेर लिया था, अपनी असमर्थता से चिन्तित हो सिद्धसेन के पास आया । सिद्धसेन ने दोनो विद्या से प्रतुल धन और सैन्य उत्पन्न कर उसकी सहायता की । इससे राजा देवपाल ने प्रसन्न हो उन्हे 'दिवाकर' पद से अलंकृत किया और प्रतिदिन आचार्य के दर्शन के लिये उत्कठित रहने लगा । फलस्वरूप सिद्धसेन राजमान्य होकर वही रहने लगे ||७० || · ॥ लावणी ॥ सुना हाल तव खेद हुना गुरु मन मे, चले एक दिन उठा पालको जन मे । सिद्धमेन गति विषम देख बतलावे, बाधति सम नही पीड़ा खंध कहावे । जान गुरु को चरण नमे बलिहारी ॥ लेकर ।।७१ ॥ ॥ c
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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