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श्राचार्यं चरितावलो
शासनहित में सबका योग सवाया । स्थूलभद्र ने भी श्राज्ञा स्वीकारी, धन्य धन्य ऐसे मुनि की बलिहारी । दीपे शासन अद्भुत जोत करारी || लेकर० ॥२८॥ श्रर्थः – विनयशील श्रावक किसी के पक्ष में नही पडे । और सबने शासनहित मे अपना वरावर योग दिया । स्थूलभद्र ने भी अपनी भूल के साथ सहर्षं ग्राचार्य की प्राज्ञा स्वीकार की । धन्य है ऐसे मुनियों को, जिनके विनय एव विवेक से शासन प्रखडित रह सका । ऐसे ही आत्मार्थी सतों से जिन शासन की ज्योति दैदीप्यमान रहती है ||२८||
॥ लावणी ॥
सौ पर सित्तर वीर काल जब श्राया, भद्रबाहु मुनिराज स्वर्ग पद पाया । पैतालीस गृहवास सप्तदश मुनिता, चवदह वत्सर रहे संघ के नेता ।
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स्थूलभद्र आचार्य हुए गुरणधारी ॥ लेकर० ॥२६॥ अर्थ : - वीर सं० १७० के वर्ष भद्रवाहु स्वामी स्वर्ग पधारे । ये पैतालीस वर्ष गृहस्थ दशा में रहे, सत्रह वर्ष सामान्य साधु रूप से और चौदह वर्प युग प्रधान आचार्य रूप से संघ का संचालन करते रहे । इनके वाद महागुणवान् मुनि स्थूलभद्र आचार्यपद पर आसीन हुए ||२६||
॥ लावणी ॥
तीस वर्ष गृह रह के मुनिपद धारा, चौबीस वत्सर साधन कर मन मारा । वर्ष पैतालीस गणनायक रहे भारी, पूर्ण श्रायु निन्नाणु वर्ष की पारी ।
दो सौ पन्द्रह सुर पदवी लही प्यारी || लेकर० ||३०||
अर्थ :- स्थूलभद्र मुनि तीस वर्ष घर मे रहे, चौवीस वर्ष तक सामान्य साधु रूप से साधना कर उन्होने मनोविजय किया और फिर पैतालीस वर्ष युग प्रधान आचार्य के रूप मे शासन की सेवा की । इन्होने पूर्ण प्रायु