________________
प्राचार्य चरितावली
सुनकर कहा, मैने महाप्राण ध्यान की साधना प्रारंभ कर दी है, फलस्वरूप इस समय मै पाने में असमर्थ हूँ ॥२४॥
लावरणी॥ सुनकर उत्तर संघ रोप में पाया, मुनियुग को फिर नाज्ञा दे भिजवाया। महास नि ने कहा वाचना टूगा, संघ कार्य कर पीछे ध्यान धरूंगा।
अनुग्रह कर दे दी प्राज्ञा हितकारी लेकर०॥२५॥ अर्थ :--मुनियो द्वारा भद्रवाहु का उत्तर सुन कर सघ के मन मे रोप भर आया । संघ ने पुन मुनियो को भेजा और आदेश देते हुए पुछवाया कि सघ की प्राजा न मानने का प्रायश्चित क्या होगा? महामुनि भद्रबाहु ने उत्तर मे कहा कि आजा न मानने पर सघ को बाहर करने का अधिकार है । मुझे अाज्ञा शिरोधार्य है पर कोई मुनि यहा आवे तो मैं वाचना दे सकूगा । वाचना का कार्य पूर्ण कर पीछे साधना करूंगा। अनुग्रह कर संघ मुझे आजा प्रदान करे तो हितकर है। भद्रवाह ने प्रतिदिन सात वाचना देने का निर्णय किया ।।२।।
|| लावणी ॥ स्यूलभद्र को योग्य ज्ञान के माना, श्रमण अन्य (पंचशत) भी जिज्ञासु थे नाना। वे शिक्षा लेने भद्रबाहु पै प्राये, अन्य मनी चंचल मन नहिं ठहराये ।
स्थूलभद्र ने तन मन सेवा धारी ॥लेकर०॥२६॥ अर्थ:-भद्रवाहु का हार्दिक विचार समझ कर संघ ने यही उचित समभा कि उनकी भी साधना चलती रहे और सघ का कार्य भी होता रहे, यह अच्छा है । स्थूलभद्र ज्ञानप्राप्ति के लिये योग्य है, अत. उन्हे भद्रवाहु के पास भेज कर दृष्टिवाद-श्रत का सरक्षण किया जाय। संघ ने स्थूलभद्र के साथ अन्य पाच सौ जिजासु मुनियो को वहा शिक्षणार्थ प्रेषित किया किन्तु जब भद्रवाहु ने वाचना देना आरभ किया तो अन्य मुनि अधिक