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श्राचार्य चरितावली
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तेले के पारणे में सर्वप्रथम एक कुम्हार के यहा से राख की भिक्षा मिली । उसको छाछ मे घोलकर धर्मदासजी पी गये । दूसरे दिन जब धर्मसिंहजी महाराज को वन्दन करने के लिये आप गये और पारणा में मिली हुई राख की भिक्षा का हाल उनकी सेवा मे निवेदन किया ।
यह सब सुनकर धर्मसिहजी महाराज ने उनसे कहा, "महात्मन् ! राख की तरह तुम्हारा शिष्य समुदाय भी चारो दिशाओ मे फैलेगा और चारों ओर तुम्हारे उपदेशो का प्रचार एव प्रसार करेगा ।"
श्री धर्मसिहजी द्वारा की गई उक्त भविष्य - वाणी के अनुसार धर्मदासजी के शिष्यों की खूब वृद्धि हुई, आपके ६६ शिष्य हुए जिनमें से २२ पडित और प्रभावशाली थे ।
सवत् १७२१ माघ शुक्ला पचमी के दिन उज्जैन मे श्री सघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया । उसके वाद आपने वर्षो तक सत्य धर्म का प्रचार एव प्रसार किया और इस कालावधि में कुल ६६ शिष्यो को अपने हाथ से जैन मुनि परम्परा की दीक्षा प्रदान की ।
संम्वत् १७५६ में एक घटना हुई । उस समय एक जैन मुनि ने जीवन का अन्त समय समझ कर संथारा कर लिया था, वह सथारे से डिगने लगा तब आप वहा ( धार शहर ) जाकर उसकी जगह संथारा कर बैठे और आठवे दिन सं० -१७५९, ग्रापाठ शु० ५ की सध्या को ५६ वर्ष की ग्रायु मे स्वर्गवासी होगये । आपके स्वर्गवास के बाद मूलचन्द जी आदि २२ मुनि धर्म प्रचार के लिये विभिन्न प्रान्तो मे स्वतन्त्र रूप से विचरने लगे । तब इन २२ मुनियो के ग्राश्रय में रहने वाला साधु समूह भी वाईस समुदाय के नाम से लोक मे प्रसिद्ध हो गया ।
बाईस समुदाय के नायक सुनि
महाराज
मूलचन्द जी धन्ना जी
लालचन्द जी
१. पूज्य श्री
२.
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