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आचार्य चरितावली
सखाजी ने उत्तर दिया-"दुनिया मे मनुष्य चाहे जितनी मोज मना ले पर आखिर मे यहा सवको मरना है । मैं ऐसा मरगा चाहता हूँ कि जिससे फिर वारम्बार नही मरना पड़े । इसी लिये ससार छोडता हूँ।"
यह सुन कर वादशाह निरुत्तर हो गया। स० १५५४ मे आपने दीक्षा ग्रहण की।
(७) ऋपि सखा के पश्चात् सातवे पट्टधर ऋषि रूपजी हुए। श्राप 'प्रणहिलपुर पाटण' के निवासी व जाति के वेद महता थे । आपका जन्म काल स० १५५४ और दीक्षाकाल सं० १५६८ है। स्व० मणिलालजी महाराज के लेखानुसार आपने १५६६ दीक्षा ग्रहण की और सं० १५६८ मे पाटण ग्राम मे २०० घरो को श्रावक बनाया। स० १५८५ मे संथारा कर पाटण मे ही त्राप स्वगवासी हुए। सथारा का काल प्राचीन पत्र मे २५॥ दिन पार स्त्र० मणिलालजी महाराज के लेखानुसार ५२ दिन का माना गया है । आपने ऋपि जीवाजो को अपना पट्टधर आचार्य नियुक्त किया।
(८) आठवे पट्टधर ऋपि जीवाजी हुए। आप सूरतवासी डोसी तेजपाल के पुत्र थे । माता कपूर देवो की कुक्षी से स० १५५१ को माघ वदी १२ को आपका जन्म हुआ । सवत् १५७८ को माघ सुदो ५ को प्राप सूरत मे ऋषि रूपजो के पास दीक्षित हुए । दीक्षा ग्रहण करने के समय पापकी पाय लगभग २८ वर्ष को थी।
सवत् १५८५ मे ग्रहमदावाद के झवेरी वाडा मे लू कागच्छ के नवलखो उपाश्रय मे प्रापको आचार्य पद दिया गया। सूरत में प्रतिबोध दे कर अापने ६०० घरो को श्र बक बनाया। आपके शिष्यो मे से अनेक वडे विद्वान और प्रभावशाली थे।
सवत् १६१३ के द्वितोय ज्येष्ठ को दशमी को संथारा कर ५ दिन के अनशन से आप स्वर्गवासी हुए । स्व० मगिालालजी महाराज लिखते है कि एक समय सिरोही राज्य दरवार मे शिवमार्गी और जैन मागियो के बीच विवाद चल पडा। उसमे जैन यतियो को हार जाने के कारण देश निकाले का राज्य की ओर से आदेश हो चुका था। पूज्य जीवाजी ऋपि को जब यह वात मालूम हुई तो उन्होने अपने शिष्य बड़े