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[ ५३ ] इसी प्रकार दुनिया के तमाम पदार्थों में-आकाश से लेकर दीपक पर्यन्त एक ही पदार्थ में हम सापेक्षरीत्या नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, वाच्यत्वादि धर्मों का अवलोकन कर सकते हैं। यहां तक कि 'आत्मा' जैसी नित्य मानी जाने वाली वस्तु को भी यदि हम स्वाद्वाद दृष्टि से देखेंगे तो इसमे नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म मालूम होंगे।
इस तरह तमाम वस्तुओं मे सापेक्षरीत्या अनेक धर्म होने के कारण ही श्रीमान् उमास्वाति वाचक ने द्रव्य का लक्षण 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' बताया है। किसी भी द्रव्य के लिये यह लक्षण निर्दोष प्रतीत होता है।
हम 'स्याद्वाद' शैली से 'जीव' पर इस लक्षण को घटावें
'आत्मा' यद्यपि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से नित्य है, तथापि इसे पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से 'अनित्य भी मानना पड़ेगा। जैसे कि-एक संसारस्थ जीव, पुण्य की अधिकता के समय जब मनुष्ययोनि को छोडकर देवयोनि में जाता है, उस समय देवगति में उत्पाद (उत्पत्ति) और मनुष्यपयार्य का व्यय (नाश) होता है, परन्तु दोनों गतियों में चैतन्यधर्म तोस्थायी ही रहता है अर्थात् यदि आत्मा को एकान्त नित्य ही माना जावे तो उत्पन्न किया हुआ पुण्य-पाप पुज, पुन. जन्म मरणाभाव से निप्फल जायगा और यदि एकान्त अनित्य ही माना जावे तो पुण्य-पाप करने वाला दूसरा और उसे भोगने वाला