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कहने का मतलब यह है कि जैनशासन की यह खास विशेषता है कि किसी भी वस्तु में एकान्तता का अभाव है है। एकान्तरीत्या अमुक ही कारण से यह हुआ, ऐसा मानना मना है। और इसीलिये जैनदर्शन मे स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रतिपादन किया गया है। इस अवसर पर मैं इस स्याद्वाद के सिद्धांत को थोडा स्पष्ट करने की चेष्टा करूँगा। स्याद्वाद
स्याद्वाद् अर्थात् अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद का प्राधान्य जैनदर्शन में बहुत अधिक माना गया है-इसीलिये 'जैनदर्शन' का दूसरा नाम भी अनेकान्तदर्शन' रखा गया है। इस स्याद्वाद का यथास्थित स्वरूप न समझने के कारण ही कई लोगों ने इसको "संशयवाद" वर्णन किया है, परन्तु वस्तुतः 'स्याद्वाद' 'संशय वाद' नहीं है संशय तो इसे कहते हैं कि 'एक वस्तु कोई निश्चय रूप से न समझी जाय ।' अंधकार मे किसी लम्बी वस्तु को देख कर विचार उत्पन्न हो कि 'यह रस्सी है या साप ?' अथवा दूर से लकडी के ठूठ समान कुछ देख कर विचार हो कि, 'यह मनुष्य है या लकडी ?' इसका नाम संशय है। इसमें साँप या रस्सी, किंवा मनुष्य या लकडी कुछ भी निणय नहीं किया गया। यह एक संशय है। परन्तु स्याद्वाद में ऐसा नहीं है। तब 'स्याद्वाद' क्या करतमोत पु.