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यह बात ठीक है कि जैनदर्शन मे कर्म और पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया गया है परन्तु यदि इससे भी आगे बढ़ कर कहें तो जैनदर्शन में किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिये कर्म और पुरुपार्थ ये दो ही नहीं किन्तु पांच कारण माने गये हैं। वे पाच कारण इस प्रकार हैं१ काल २ स्वभाव ३ नियति ४ पुरुषाकार और ५ कर्म। ये पाचों कारण एक दूसरे के साथ ऐसे ओतप्रोत-संयुक्त हो गये हैं कि इनमे से एक भी कारण के अभाव मे कोई भी कार्य नहीं हो सकता।
हम इस बात का एक उदाहरण द्वारा अवलोकन करें
जैसे कि स्त्री बालक को जन्म देती है, इसमे सर्व प्रथम काल की अपेक्षा है, क्योंकि विना काल के स्त्री गर्भ धारण नहीं कर सकती। दूसरा कारण स्वभाव है। यदि उसमे बालक को जन्म देने का स्वभाव होगा तो ही वालक उत्पन्न होगा नहीं तो नहीं होगा। तीसरा कारण है नियति (अवश्यभाव ) अर्थात् यदि पुत्र उत्पन्न होने को होगा तभी होगा, नहीं तो कुछ कारण उपस्थित होकर गर्भ नष्ट हो जायगा। चौथा कारण है पुरुषाकार (पुरुषार्थ ) पुत्र उत्पन्न होने मे पुरुषार्थ की भी आवश्यकता पड़ती है। कुमारी कन्या को कभी भी पुत्र उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार चारों कारण होते हुए भी यदि कर्म (भाग्य) मे होगा, तो ही होगा।