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________________ [ ३६ ] है, सर्व शरीरधारियों का ध्येय है तथा जो समस्त नीति का मार्ग बताने वाला है, वह ही महादेव ईश्वर है। यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि ईश्वर को "नीति का स्रष्टा" इस अपेक्षा से कहा है कि वह शरीरधारी अवस्था में जगत को कल्याण का मार्ग बताने वाला है। शरीर छूटने के बाद-मुक्ति मे गये वाद इनमे से ईश्वर को किसी भी प्रकार का कर्तव्य करना नहीं रहता इस बात का स्पष्टीकरण हम आगे करेंगे। ___ यदि संक्षेप में कहा जावे तो "परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः" अर्थात् जिसके सर्व कर्म क्षय हो गये हैं वह ईश्वर है। जो आत्मा आत्मस्वरूप का विकास करते करते परमात्मस्थिति को पहुंचते हैं वे सब ईश्वर कहलाते हैं। जैनसिद्धान्त किसी एक ही व्यक्ति को ईश्वर नहीं मानता, कोई भी आत्मा कर्मों का क्षय कर परमात्मा बन सकता है। हां, परमात्मस्थिति में पहुंचे हुए ये सब सिद्ध परस्पर एकाकार और अत्यन्त संयुक्त होने से, इनको समुच्चय में यदि "एक ईश्वर" रूप कथंचित् व्यवहार किया जावे तो इसमे कोई अनुचित नहीं है किन्तु जैनसिद्धान्त ऐसा कदापि प्रतिपादन नहीं करता है कि जगत की कोई भी आत्माईश्वर नहीं हो सकती-परमात्मस्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकती।
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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