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यह बात नहीं है कि मात्र जैनलोग ही ईश्वर को कर्ता हर्ता नहीं मानते परन्तु वैदिक मत में भी कई सम्प्रदाय ईश्वर को कर्ता नहीं मानते। देखो वाचस्पतिमिश्र रचित सांख्यतत्वकौमुदी ५७ कारिका।
स्याद्वाद। प्रमाण पूर्वक जैनशास्त्रों मे एक सिद्धान्त ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि जिसके सम्बन्ध में विद्वानों को आश्चर्य चकित होना पड़ता है। यह सिद्धान्त स्याद्वाद है। एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या नानाधर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः । एक वस्तु मे अपेक्षा पूर्वक विरुद्ध जुदा जुदा धर्मों को स्वीकार करना, इसका नाम स्याद्वाद है। जब मनुष्य कुछ बोलता है तब उसमे उस वचन के सिवाय दूसरे विषय सम्वन्धी सत्य अवश्य रहता है। जैसे कि “वह मेरा भाई है। जब मैं इस प्रकार बोलता हूं कि वह मेरा भाई है तो क्या वह किसी का पुत्र नहीं है ? अवश्य है। इसी प्रकार वह किसी का चाचा है, किसी का मामा है और किसी का बाप भी है। प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा से नित्यानित्य मानना अर्थात् सर्व पदार्थ उत्पाद, विनाश और स्थायी स्वभाव वाले हैं ऐसा निश्चित होता है। वस्तु मात्र में सामान्यधर्म और विशेषधर्म रहा हुआ है। साराश यह है कि एक ही वस्तु मे अपेक्षा से अनेक धर्मों की विद्यमानता स्वीकार करने का नाम स्याद्वाद है। विशाल