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सब भाषार्य कहलाते है। सातवें ज्ञानार्य के - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव. केवल ज्ञानार्य रूप पांच भेद हैं । इसी । प्रकार दर्शनार्य के भी - सरागदर्शनार्य, वीतरागदर्शनार्य रूप मुख्य दो भेद हैं । कारण मे कार्य का उपचार करने से- सरागदर्शनार्य के दश प्रभेद हैं। वे इस प्रकार हैंनिसर्गरुचि, आज्ञामचि, सूत्ररुचि, वीजरुचि, अधिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि तथा धर्मरुचि । नाम निर्देश मात्र से ही श्रोताओं को भावार्थ का ज्ञान हो गया होगा, इसलिये मैं इसका वर्णन नहीं करता। अन्त में सच्छात्र मे बतलाए हुए सदाचार के पालन मे जो रक्त होते है वे चारित्रार्य कहलाते हैं ।
अब मैं प्रस्तुत विषय पर आता हूँ :--
महानुभावो । मेरे बतलाये हुए उपर्युक्त भेदों से आप समझ गये होंगे कि आर्य अनेक भेदों में विभक्त हैं। अत. एव मैं किसी भी मनुष्य के लिये एकान्त से ऐसा नहीं कह सकता कि वह अनार्य ही है। इसलिये जो नाम किसी भी प्रकार से आर्यत्व प्रगट करता हो उसको आत्मीय समझ कर क्यों न अपनाया जाय ? अर्थात् अवश्य अपनाना चाहिये । मनुष्यों के चित्त मे जो विचार वर्त्तमान समय में दृढ़ता को पाये हुए हैं, वे साम्प्रतिक प्रथा के अनुसार ही हैं ।
यह बात तो स्पष्ट ही ज्ञात होती है कि जैसे जैसे समय व्यतीत होता जाता है, वैसे वैसे मनुष्यों मे भिन्नता उत्पन्न