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________________ [८] धर्म के नाम से प्रसिद्ध कर रहे हैं उनका परिवर्तन करना। मेरी तो यह धारणा हैं कि चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय तो भी आत्मधर्म का परिवर्तन कदापि नहीं हो सकता। अच्छेदी-अमेदी-अनाहारी-अकषायी आदि-आत्मस्वरूप को प्रकट करने वाले आत्मा के धर्म है। ऐसे आत्मधर्मों का परिवर्तन कैसे हो सकता है ? ___ वर्तमान समय मे शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध आदि के नाम से अनेक धर्म प्रसिद्ध हैं। इन धर्मों के विचार की अपेक्षा से मैं यहां पर मनुष्य जाति के भेदों का विचार करना आवश्यक समझता हूँ। जैनाचार्य शिरोमणी वाचकाचार्य श्रीउमास्वाति ने . मनुष्यों का मेद बताने वाला एक सूत्र कहा है :'मनुष्या द्विविधाः आर्या म्लेच्छाश्च' । 'तत्र ऋच्छन्ति दूरी भवन्ति सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्याः' । इस व्याख्या को लक्ष्य में रखकर आप सब आर्य-अनार्य का विचार कर सकते हैं, तथापि इस विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिये जैनागम में बतलाये हुए आर्य के भेदों का मैं संक्षेप से वर्णन करूँगा। श्रीप्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में आर्य के इस प्रकार भेद बतलाये गये हैं : मूल दो भेद-ऋद्धिमान् आर्य, अनृद्धिमान् आर्य। जो आत्मऋद्धि वाला होता है वह ही ऋद्धिमान आर्य कहलाता
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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