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हिन्दी के नाटककार
उभरा आवेशपूर्ण हृदय की आँधी और द्वन्द्व को प्रकट करने वाला है । अभिनेता यदि सफल कलाकार हो तो इससे बहुत प्रभाव उत्पन्न कर सकता है । पाँचवें श्रंक, पहले दृश्य में मुद्गल के स्वगत भाषण के विषय में भी यही समझना चाहिए ।
'चन्द्रगुप्त' के प्रथम अंक के तीसरे दृश्य में द्वतीय अंक के पहले दृश्य में कार्नेलिया, चतुर्थ श्रंक के पाँचवें दृश्य में चन्द्रगुप्त का स्वगत के साथ प्रकट होना भी अस्वाभाविक नहीं । इन स्वगतों में एकान्त भाव-प्रकाशन और अपने हृदय की छटपटाती स्थिति को प्रकट करने का स्वाभाविक प्रयत्न है । पर कुछ स्वगत भाषण आक्षेप के शिकार हो सकते हैं । प्रथम के तृतीय दृश्य के अन्त में, प्रथम त के सातवें दृश्य के प्रारम्भ न तथा तृतीय श्रम के छठे दृश्य में चाणक्य के स्वगत भाषण लम्बे हैं, यही इनका दोष है। तृतीय के छठे दृश्य का स्वगत भाषण वास्तव में अधिक बड़ा है, शेष दो तो अभिनेता की योग्यता से बहुत सुन्दर बन सकते हैं। लम्बे भाषणों में अभिनय बहुत उच्चकोटि का चाहिए, नहीं तो वे प्रभावहीन और उकता देने वाले हो जायेंगे ।
पद्यों की सभी नाटकों में भरमार है, पर इस पद्यात्मकता का भद्दा रूप tators कथोपकथन ! 'विशाखा' और 'श्रजातशत्र' में इसकी भरमार है । 'विशाख' में विशाख, प्रेमानन्द, नरदेव, चन्द्रलेखा, और 'श्रजातशत्रु' में वासवी, गौतम, उदयन, पद्मावती, श्यामा, जीवक, विरुद्वक सभी पात्र पद्यों में बातें करते हैं । यह पद्यात्मक वार्तालाप अन्य नाटकों में बिलकुल बन्द कर दिया गया है।
आरम्भ में भरतवाक्य के ढंग के श्राशीर्वचन भी 'प्रसाद' के नाटकों में पाये जाते हैं । 'राज्यश्री' के अन्त में सब मिलकर विश्व की मंगल कामना करते हैं । 'जनमेजय का नाग यज्ञ' में भी नेपथ्य में, जय हो, उसकी जिसने अपना विश्वरूप विस्तार किया, गान गाया जाना भी भरत वाक्य को ही प्रकट करता है 'कामना' में भी भरत वाक्य समवेत गान के रूप में कहा गया है अन्य नाटकों में स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी में भरत वाक्य का बिलकुल लोप हो गया है। धीरे-धीरे 'प्रसाद' जी की कलम निश्चित नाट्य नियमों का पालन करती गई – उनकी कला क्रमशः निखरती गई और वह अस्वाभाविक अनावश्यक नाटकीय अनुरोध-विरोधी बातों को त्यागते चले गए । चरित्र चित्रण की ओर उनका ध्यान आरम्भ से ही रहा । 'श्रजातशत्रु' 'राज्यश्री' 'जनमेजय का
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