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जयशंकर 'प्रसाद'
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"मैं - प्रविश्वास, कूटचक्र और छलनात्रों का कंकाल, कठोरता का केन्द्र ! तो आह ! इस विश्व में मेरा कोई सुहृद नहीं है ? ..... "और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन पट से धुल चली है । धुल जाने दूँ ? सुवासिनी-न-म-न वह कोई नहीं ।" चाणक्य के शब्द उस, चाणक्य के, जिसने हृदय की मधु भावना को अपने ही वज्र- कठोर पैरों से कुचल दिया, उसके आहत हृदय का चीत्कार farai रहे हैं।
यही बात चन्द्रगुप्त के चरित्र में भी पूरी उतरती है । "संघर्ष ! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो मालविका ! आशा और निराशा का युद्ध, भावों का प्रभावों से द्वन्द्व ! ... देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोई रहस्य गोपनीय नहीं ।'
प्रसाद के चरित्रों में जहाँ सशक्त वीरोन्माद है, त्याग का उल्लास है, विजय का उत्साह है, वहाँ वेदना-विह्वल उच्छवास भी है— प्रभाव की बेचैनी भी है। कौन कहता है, वे सच्चे मानव नहीं ?
'प्रसाद' जी ने अपने हृदय की समस्त कोमलता, कल्पना की रंगीनी भावना की स्निग्धता और कला की सफलता नारी चरित्रों के भव्य निर्माण में प्रयुक्त की है । पुरुष बुद्धि, कठोरता, युद्ध-वीरता, पौरुष और कर्म के प्रतीक हैं तो नारी भावुकता, भावना, सेवा, त्याग, मर्यादा, आस्था और श्रात्माभिमान की प्रतिमाएं । प्रसाद की कवि-तूलिका ने नारी के अत्यन्त मनोहर चित्र उतारे हैं । वासवी-ऐसी पति-परायण, त्यागी, वात्सल्यमयी, राज्य-श्री- ऐसी सौन्दर्य शीला और तपस्विनी, ध वस्वामिनी-ऐसी गौरवशीला, अलका जैसी ज्योतिपूर्ण शक्तिमती, कल्याणी और मालविका - ऐसी आत्मत्यागी free और प्रेममुग्ध और देवसेना - ऐसी प्रेमाभिमानी त्यागी, सेवापरायण, श्रात्मसंयमी, करुणामयी नारी 'प्रसाद' की लेखनी से प्रसूत
का शक्ति की दिव्य रश्मि, जिधर भी जाती है, देशभक्ति और राष्ट्र सेवा के राग से प्रेरित कर देती है । वह सहस्रों युवकों की प्रेरक शक्ति - अनेक कर्तव्य-भ्रष्ट व्यक्तियों का अवलम्ब है । मालविका का चरित्र स्पर्धा का विषय है । अपने निष्काम बलिदान के समय वह कितनी उल्लसित है, जैसे सोहाग रात मनाने जा रही हो - प्राणों में कितनी मादकता है ! कल्याणी भी प्रेम का एक आहत उच्छ्वास है - जो समय की निष्ठुर चट्टान से सिर टकराकर रह जाती है ।
देवसेना 'प्रसाद' की नारी का श्रादर्श, अतृप्त प्रेम की प्यासी पुकार के