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जयशंकर प्रसाद नहीं।" और प्रसाद जी मुसकराकर एक गाना, उसे भी दे देते हों। इस प्रकार सभी की बारी आ गई।
पर अनेक गाने बहुत उपयुक्त, समय और परिस्थिति के अनुरोध के कारण हैं । 'चन्द्रगुप्त' में नन्द के सम्मुख सुवासिनी के गीत ( 'तुम कनक किरण के...' ) और 'आज इस यौवन के...' स्थान और समय के अनुसार हैं । कल्याणी का गीत ( सुधा-सीकर से नहला दो ) भी ठीक है। 'चन्द्रगुप्त' में सबसे उपयुक्त और नाटकीय मांग को पूरा करने वाला गीत है अलका का, जिसे गाते हुए वह राष्ट्र में प्राण फूंक रही है। उसका यह गीत-(हिमाद्रि तुङ्ग श्रृङ्ग पर .....:') सब दृष्टियों से उच्चकोटि का है।
इसी प्रकार 'स्कन्दगुप्त' के 'माँझी साहस है खेलोगे ?' 'धूप छाँह के खेल सदृश सब जीवन बीता जाता है।' भी उपयुक्त गीत है। पर सबसे उपयुक्त गीत है अन्तिम-'पाह वेदना मिली विदाई !' यह गीत धुंधले निराश वातावरण में सिसकियाँ भरे स्वर बिखरा जाता है । दर्शक या पाठक की धड़कन में कितनी ही देर तक यह गीत नाटक का अन्तिम प्रभाव छोड़ने के लिए बहुत ही सफल है।
प्रसादजी के गीतों में उनकी रहस्यवादी भावना के ही चित्र हैं, इसलिए वे प्रायः नाटक से स्वतन्त्र हैं।
रचना-क्रम से ही छायावादी प्रभाव की धारा भी स्पष्ट होती . जाती है। 'अजातशत्र' और 'नागयज्ञ' में यह अत्यन्त अस्पष्ट और क्षीण है। 'अजातशत्र' में श्यामा के गीत 'बहुत छिपाया उफन पड़ा अब सँभालने का समय नहीं है' और 'अमृत हो जायगा विष भी पिला दो हाथ से अपने' में छायावादी शैली का क्षीण आभास-मात्र है। 'नागयज्ञ' में सुरमा का यह गीत, 'बरस पड़ा अश्रु-जल हमारा मान प्रवासी हृदय हुआ' भी एक श्राभास-मात्र ही देता है। इनकी रचना-काल के समय तक प्रसादजी छायावादी प्रयोग ही कर रहे थे, वह स्वयं स्पष्ट न थे। समय के साथ वह भी अपने भाव-प्रकाशन में स्पष्ट होते गए, नाटकों के गीतों में भी स्पष्ट छायावाद आता गया।
'स्कन्दगुप्त' तथा 'चन्द्रगुप्त' में उनके गीत नाटकीय आवश्यकता न होकर, रहस्यवादी मुक्तक काव्य का रूप धारण कर बैठे, यद्यपि उनका प्रसंगानुसार महत्त्व भी थोड़ा-बहुत है ही।
न छेड़ना उस अतीत स्मृति से खिचे हुए बीन-तार कोकिल ।