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हिन्दी के नाटककार एक तो प्राचीन इतिहास सामने रखा, दूसरे नवीन खोजें भी की और सच्चा इतिहास अपने नाटकों द्वारा प्रस्तुत करने का स्तुत्य प्रयत्न किया ।
राष्ट्रीय जागरण समय की मूर्छाभरी गोद में बे-सुध-विस्मृति के खण्डहरों में छिपे हमारे जर्जर सांस्कृतिक आलोक-मंदिर का ही पुनर्निर्माण प्रसादजी ने नहीं किया, उसमें राष्ट्रीय प्राणवान जीवन की भव्य प्रतिष्ठा भी की । विदेशी राजनीतिक प्रभुत्व से आतंकित भारतीय हृदय को शक्ति और सुरक्षा का अवलम्ब देकर आश्वस्त किया-प्रात्म-बल का विश्वास दिलाया। पश्चिमी सभ्यता के प्रकाश से चौंधियाई पथ-भूली आँखों को शीतल पश-प्रदर्शक आलोक दिया-दीन भाव से जर्जर जीवन को सशक्त गति दी।
विजय-मद में चूर पशु-बल पर गर्वित पश्चिमी सभ्यता की बाढ़ को रोकने के लिए प्रसाद के अतिरिक्त किसी भी अन्य लेखक के नाटक समर्थ और सफल बाँध नहीं बन सके । प्रसाद की राष्ट्रीयता में गौरवशाली विजय का उल्लास है। उसमें भारतीय शक्ति, शौर्य, सेवा, क्षमा, बलिदान-सभी की रंगीन किरणें हमारे अतीत के चित्रों को चमकाती हैं। वह हमारे वैभव और विदेशी आततायियों-अाक्रमणकारियों के पराभव की कहानी है। परदेशी विजेताओं के दम्भ को चुनौतीपूर्ण उत्तर है ।
'स्कन्दगुप्त' में बन्धुवर्मा कहता है-"तुम्हारे शस्त्र ने बर्बर हूणों को बता दिया है कि रण-विद्या केवल नृशंसता नहीं है। जिनके आतंक से प्राज विश्व-विख्यात रूम साम्राज्य पादाक्रान्त है, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा
और तुम्हारे पैरों के नीचे दबे कण्ठ से उन्हें स्वीकार करना होगा कि भारतीय · दुर्जय-वीर हैं।"
___ यही वह शक्ति और शौर्य है, जिससे प्रत्येक भारतीय के प्राणों में सबल विश्वास जागता और विदेशी आक्रमणकारी का कलेजा कॉपता है। यह वह खड्ग है, जिसकी छाया में प्रत्येक देशवासी, सुरक्षा का विश्वास करता है।
प्रसाद के प्रत्येक नाटक में आर्य-राष्ट्र को संघटित, सुरक्षित, सशक और महान् बनाने का सफल प्रयन्न है। 'जन्मेजय का नागयज्ञ' से लेकर अंतिम नाटक 'ध्रुवस्वामिनी' तक सभी राष्ट्रीय भावनात्रों से प्रोतप्रोत हैं। 'चन्द्रगुप्त' और 'स्कन्दगप्त' में यह राष्ट्रीयता चरमावस्था पर पहुँच अनन्त बलिदानों को गोद में लिये वैभव के शिखर पर आसीन है।