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हिन्दी के नाटककार धर्म को हमने कितनी हो बार विष के बूंट पीकर भी सुरक्षित रखा है। इतिहास इस बात का साक्षी है।
क्षमा हमारी क्षमता है। 'चन्द्रगुप्त' में यह क्षमा भी कितनी गौरवशाली है।
_ 'सेनापति, रक्त का बदला ! इस नृशंस ने निरीह जनता का अकारण वध किया है-प्रतिशोध !"-[ एक सैनिक ]
__ "ठहरो मालव वीरो, ठहरो ! यह भी एक प्रतिशोध है । यह भारत के ऊपर एक ऋण था-पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है।" ____ कहकर सिंहरण तुरन्त सिकन्दर को मुक्त कर देता है। यह क्षमा, यह कृतज्ञता, यह प्रतिशोध इतिहास के लिए स्पर्धा की वस्तु है।
आर्य-संस्कृति का यह दिव्य रूप सामने रखकर प्रसाद जी ने हमारी आँखों को नवीन प्रकाश दिया-उन्होंने उस गौरवशाली पथ का निर्माण किया, जिसके लिए हम सैकड़ों वर्षों से भटक रहे थे । प्रसाद जी ने ब्राह्मण शाश्वत धर्म की झाँकी दिखाई और साथ ही क्षात्र-धर्म के देदीप्यमान बल का रूप भी उपस्थित किया। उनका यह कार्य भारतीय साहित्य-निर्माण में महान् सिद्धि है-गौरवमय सफलता है।
ऐतिहासिकता संस्कृति प्राण है और अतीत का गौरवशाली वैभवपूर्ण इतिहास उसका स्वस्थ शरीर । अतीत की प्रार्य-संस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए प्रसादजी ने भारतीय इतिहास को चुना । इतिहास की सबल बुनियादों पर उन्होंने संस्कृति का भव्य भवन निर्माण किया। प्रसादजी को अपने पूर्वजों के इतिहास पर विश्वासपूर्ण गर्व था-उससे उन्हें मोह था। प्रसादजी के ( 'एक चूंट'
और 'कामना' को छोड़कर ) सभी नाटक भारतीय इतिहास के चमकते रस्न हैं । प्रसादजी ने भारत का वह इतिहास लिया है, जब आर्य-सभ्यतासंस्कृति और शक्ति वैभव-शैल के सर्वोच्च शिखर पर आसीन थी । प्रसाद के नाटकों का ऐतिहासिक काल भारतीय पराक्रम का चमकता युग है । आर्यसाम्राज्य-विस्तार का वह समय था । विदेशी आक्रमणकारियों को पराजित करके भारतीय गौरव का अभिषेक करने का अवसर था। हमारा राजनीतिक प्रभुत्व व्यापक था। व्यापार-व्यवसाय, कला-कौशल, साहित्य-सृजन आदि सभी दृष्टियों से वह काल 'स्वर्ण-युग' था।
प्रसादजी के नाटकों का समय भारत-युद्ध ( महाभारत ) के बाद से