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हिन्दी के नाटककार
श्रार्य-संस्कृति की उपेक्षित अवस्था देखकर प्रसादजी ने 'कामना' की रचना की । 'कामना' हमारी भोली वात्सल्यमयी मधुर मानवतापूर्ण संस्कृति है और 'संतोष' उसका पति - प्राधार और उद्देश्य है । 'फूलों का द्वीप' उसका प्यारा देश है। विदेशी 'विलास' 'कामना' को पथभ्रष्ट करने के लिए भौतिक सभ्यता की चकाचौंध उसे दिखाता है । स्वर्ण का मूल्य बढ़ता है - 'कामना' भुलावे में आकर 'सन्तोष' से दूर होती जाती है और फिर देश में अशान्ति, अनाचार और मदिरा-पान का दौर दौरा होता हैफिर सुख कहाँ । 'कामना' रूपक पश्चिमी सभ्यता द्वारा लाये गए विलास at dearer तस्वीर है । इस रूपक में प्रमादजो ने हमारो संस्कृति के करुण विनाश और प्रसन्न उद्धार का मनोहर चित्र खींचा है। संस्कृति के विनाश का वह व्यथित चित्र 'सन्तोष' के शब्दों में देखिये -
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" वे ( युवक ) शिकार और जुआ, मदिरा और विलासिता के दास होकर गर्व से छाती फुलाए घूमते हैं । कहते हैं, हम धीरे-धीरे सभ्य हो रहे है ।"
कामना ने भी देखा कि
"अब क्या देश में धनवान और निर्धन, शासकों का तीव्र तेज, दीनों की विनम्र दयनीय दासता, सैनिक बल का प्रचण्ड प्रताप, किसानों की भारवाही पशु की-सी पराधीनता, ऊँच और नीच, अभिजात और बर्बर सभी कुछ तो है । सब कुछ सोना और मदिरा के बल पर चल रहा है ।" इसी संस्कृति की पतनावस्था का चित्र 'स्कन्द गुप्त' में भी देखिए । एक सैनिक कहता है
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“हाँ, यवनों से उधारली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य जाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलवधू को छोड़ कोई नागरिक वेश्या चरणों में । जातीय जीवन के निर्वाणोन्मुख दीप का यह दृश्य है ।"
ऊपर के उद्धरणों में प्रसाद की वह व्यथा बज रही है, जो उन्हें अपनी संस्कृति के पतन पर होती थी ।
इस जर्जर संस्कृति को प्राणवान कैसे बनाया जाय- इसको कैसे पुनर्जीवित किया जाय, यही प्रसाद की श्राकांक्षा का सबल अनुरोध है । प्रसाद जी ने आर्य-संस्कृति का महान् और अनुपम रूप उपस्थित करने के लिए, उसके दिव्य गुणों के स्वस्थ पक्ष को विश्व के सामने रखा। मानवता का भव्य रूप ही इसे विश्व की आँखों में गौरवशाली बना सकता है । यही प्रसादजी ने उपस्थित किया । 'जन्मेजय का नागयज्ञ' में श्रार्य संस्कृति को सबल पैरों पर खड़ा करने का एक प्रयास है । उसमें नागों का दमन कर