________________
४६
हिन्दी के नाटककार
अश्रु
भी। सूर्यदेव बन्दीगृह में लोहे के एक पींजरे में मूर्छित पड़ा है और एक देवता श्राकर गाता है :
"सब भाँति देव प्रतिकूल होइ एहि नासा ।
अब तजहु वीरवर भारत की सब प्रासा ॥ अब सुख-सूरज को उदय नही इत है । सो दिन फिर इत अब सपनेहूँ नहि ऐहैं ।। स्वाधीनपनो बल धीरज सबहिं सं हैं । मंगलमय भारत-भुव मसान जैहै ॥
निराशा की सघन अँधेरी में दम घुटने लगता है। हृदय में बेचैनी तड़पने लगती है |
" कुमार ! आप ऐसी बात कहेंगे कि शोक मे मति विकल हो रही है तो भारतवर्ष किसका मुँह देखेगा ! इस शोक का उत्तर हम प्रश्रुधारा से न देकर कृपाण धारा से देंगे ।"
राजपूत के इन उत्साह उमंग भरे वीरोचित वचनों से देशोद्वार की कितनी बँधती है।
अन्त में वही होता है। नील देवी अपने पति की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए एक गायिका बनकर अबदुश्शरीफ के दरबार में जाती है और अवसर पाकर सिंहनी के समान उस पामर की छाती पर चढ़कर अपनी कृपाण से उसका कलेजा चीर डालती है । ऐसी वीर, निर्भय, प्रतिभाशाली, नीविनिपुण नारियों की आवश्यकता भारतवर्ष को सदा रहेगी।
भारतेन्दु का देश-प्रेम कितनी ही धाराओं में बहता है । पर उसी देश प्रेम की धारा में बृटिश शासन की प्रशंसा की कीचड़ भी कहीं-कहीं देखने को मिल जाती है । पता नहीं, उस युग की यह कौन-सी श्रावश्यकता थी ? हास्य-व्यंग्य
भारतेन्दुजी रस-सिद्ध साहित्य निर्माता थे । प्रेम की स्वच्छ धारा उनकी लेखनी से प्रसूत हुई, करुणा की बदली बनकर उनका हृदय बरसा शृङ्गार की रस-भीगी पिचकारियाँ उनके हाथों से छूटी और हास्य की गुदगुदी-भरी फुलझड़ियाँ भी भारतेन्दुजी ने छोड़ीं । हास्य-व्यंग्य के वह सिद्धहस्त लेखक थे । 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' और 'अन्धेर नगरी' में लोट-पोट कर देने वाला हास्य है । इनमें उन्होंने समाज और व्यक्ति पर मीठा, मनोरन्जक और तीखा व्यंग्य किया है । 'विषस्य विषमौषधम् ' भी उच्च कोटि की व्यंग्यरचना है।