________________
२५
आलोक हैं। हमारे बिवार में इसका प्रमुख कारण है, साहित्य को जीवन से दूर की वस्तु समझना । साहित्य का प्रयोजन और आदर्श ही हमारे यहाँ भिन्न रहा है । प्राचीन भारत में साहित्य जीवन को यथार्थ व्याख्या नहीं बन सकाकिसी अादर्श का हो चित्रण करता रहा । य पार्थ जीवन-चित्रण करने की प्रार पग बढ़ाया ही नहीं गया। जीवन क्या है.' की और टि न करके, क्या हो' की ही चिन्ता साहित्यकारों को रही । यथार्थ जीन में दुप, निराशा, वेदना, असफलता भी हैं और सफलता,वाशा-मुख भी । बानिय कारष्टिकोण काजी होने के कारण वह जीवन का मुखी पहल ही अपना सका। ___नाटक जनता की सम्पत्ति बन सकना था : पर ऐसा हुया कहाँ ? जनता की वस्तु न होने से उसमें बहु-मंग्यक जनजीरन की बात 'याती कम सकती थी ? बहुसंख्यक मनुष्यों का जीवन प्रत्येक युग में करुणा -लावित और वेदनाहत रहा है। तुलनात्मक रूप में अल्पसंपक मनुष्य ही मुनी रही है। साहित्य-नाटक भी-यहाँ बहसंम्यकों की धरोहर नहीं बना। जय बहसंख्यकों का जीवन उसमें कैसे पा सकता ? ___ नाटक आदि की रचना या तो सम्पभियान राजा -महाराजाम्रो मनोरंजन के लिए होती थी या उनके प्रश्रय में रहकर । भधोष, कानिदास,भवभूति आदि प्रसिद्ध नाटरकारों ने राज्याश्रय में रहकर भी अपनी कृतियों की रचना की। प्राचीन प्रेक्षागृह भी अधिकतर राजा-महागानों ने निर्मित कराये । स्पष्ट है. उन्हीं के मनोरंजन के लिए उनमें नाटक अभिनीत भी होते थे । वैभवशाली मनुष्यों का जीवन सुखी था ---उनका जीवन चित्रित किया जाना स्वाभाविक भी है। उन सम्पत्तिवान रामानों को क्या पड़ी कि करुयाव्याकुल जीश्रम के चित्र देखकर अपने मुम्ब-विलास में बया-भर भी बाधा डाले। पाश्रय दाताओं की रुचि दुग्वान्त नाटकों की ओर कभी होती न थी, फिर किनके लिए इस प्रकार के नाटक लिखे जाते?
कहा जा सकता है, नाटक जनता की सम्पत्ति है।
शूद्रों तक को इसमें श्रानन्द लेने का अधिकार है । नाटक की उत्पान की कहानी में भी यह प्रकट है । उनको प्रानन्द देने के लिए मना ने चारों दो से चार तस्य लेकर इस पंचम वेद की रचना की। न तो इस कहानी में ही,
और न नाटक के विकास और इतिहास में ही यह सिद्ध होता है कि नाटक जन-साधारण के लिए लिखे गए या अभिनीन हप । हो, नाटक के जन्म की कहानी और विकास से शूदों के प्रति दयादान की स्वीकृति मित्र होती है, अधिकार की बात नहीं । यदि नाटक सम्बाधारण की वस्तु होना,नी उसमें