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भारतेन्दु-मण्डल
भारतेन्दु अपने युग के साहित्य प्रेरक सर्व-प्रभावक व्यक्ति थे । भारतेन्दु की सशक्त, प्रकाशवान और गतिशील प्रेरणा ने सजग लेखकों का एक त्रिशाल मण्डल तैयार कर दिया था । भारतेन्दु के समान ही भारतेन्दु-मण्डल के प्रायः सभी लेखकों ने साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र को उर्वर बनाने की सफल चेष्टा की उन्होंने विविध शैलियों और दिशाओं में साहित्य-सृजन किया । हिन्दी साहित्य की सर्वतोमुखी श्री वृद्धि का श्री गणेश इसी युग में हो गया । कहानी, उपन्यास, निबन्ध, समालोचना, नाटक, पत्रकारिता श्रादि साहित्य के सभी अंग भारतेन्दु- मण्डल द्वारा समृद्ध किये गए । भारतेन्दु जी ने अपने गद्य की स्वरूप प्रतिष्ठा नाटकों के माध्यम द्वारा की थी, इसलिए उनकी प्रेरणा ने नाटक रचना को विशेष रूप से प्रभावित किया। इस युग में अनेक नाटककारों का उदय हुआ और पौराणिक, ऐतिहासिक, प्रेम-सम्बन्धी, समस्या-प्रधान, समाज सुधारक नाटक तथा प्रहसन – सभी की रचना हुई ।
भारतेन्दु-युग भारतेन्दु जी के स्वर्गवास के पश्चात् ६०-७० वर्ष तक माना जा सकता है -- विक्रम की बीसवीं शताब्दी के आरम्भ होने तक । इस युग में जितने भी नाटककार हुए, सभी को हमने भारतेन्दु-मण्डल में रखा है । मण्डल का तात्पर्य यह नहीं है कि जो साहित्य - मण्डल भारतेन्दुजी के जीवन-काल में उदय हुआ या जो भारतेन्दु जी के साहित्य-संगी थे, वे ही । जितने भी नाटककार भारतेन्दु जी से प्रभावित हुए या उनके जैसे ही क्षेत्रों से सामग्री ली, उनकी जैसी शैली में ही लिखने रहे, वे सभी भारतेन्दु-मण्डल में लिये गए हैं।
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भारतेन्दु-युग के नाटककारों को भारतेन्दु - मण्डल के नाम से पुकारना ही ठीक रहेगा । इस मण्डल या युग के प्रमुख लेखक हैं- बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र,