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लक्ष्मीनारायण मि
१६५ नाटकों में तो कथा इतनी बिखर गई है कि उसका संबंध भी ढीला पड़ गया है, तब गतिशीलता और सक्रियता ( कार्य-व्यापार ) की आशा ही नहीं की जा सकती। 'राक्षस का मंदिर' का कथानक भी कुछ इसी ढंग का है। रघुनाथ-ललिता का प्रेम, मुनीश्वर द्वारा मातृ-मंदिर की स्थापना, अश्गरीमुनीश्वर का प्रेम, सभी घटनाए. एक कथा-शृङ्खला की कड़ियाँ मालूम ही नहीं होती, सभी जोड़ दी गई हैं। . 'मुक्ति का रहस्य', 'राजयोग', 'सिन्दूर की होली' आदि के कथानकों में भी एक-दो घटनाए ही हैं। सभी के कथानक निर्बल और शिथिल हैं। 'मुक्ति का रहस्य' में आशादेवी द्वारा उमाशंकर शर्मा की पत्नी को विष दिया जाना, 'राजयोग' में गजराज और चम्मा की माँ का यौन-सम्बन्ध होने से चम्पा का जन्म, 'सिन्दूर की होली' में मुरारीलाल द्वारा मनोजशंकर के पिता का वध, कथानकों की आधारशिला हैं। सभी घटनाएं परोक्ष में होती हैं और इन्हीं पर कथा त्रों की इमारतें खड़ी होती हैं। वे इमारतें भी निराकार घटनाओं से ही बनी हैं। इसलिए नाटकों में कार्य-व्यापार का प्रायः अभाव-सा है। नाटकों को तीन अंकों के तीन दृश्यों में बाँधने की टैकनीक ने प्रायः अन्य घटनाओं को भी पर्दे के पीछे ही घटने दिया है और उनकी कहानी-तात्र पात्र सुना
नाटकीय आकस्मिकता का बढ़िया उदाहरण 'राक्षस का मंदिर' के पहले अंक में मिलता है । मिस्टर बैनर्जी जब मुनीश्वर को गिरफ्तार करने आते हैं तो काफी धड़कनभरा वातावरण उपस्थित होता है। दुर्गा का प्रवेश भी कौतूहलवर्धक है। 'सिन्दूर की होली' में केवल इतनी ही आकस्मिकता है कि चन्द्रकला मांग में सिंदूर भरकर श्रा जाती है। रजनीकांत को अपना पति मानकर, जब कि सभी यह आशा लगाये होंगे कि उसका विवाह मनोजशंकर से होने वाला है।
'वत्सराज' का तीसरा अंक मिश्रजी के नाटकों में नाटकीयता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । चरित्र, घटना, पाकस्मिकता, कौतूहल सभी दृष्टियों से लेखक ने इस अंक में अत्यन्त कला-कुशलता प्रदर्शित को है। उदयन का पुत्र गौतम के साथ हो लिया । उदयन व्यथित है पिता की ममता के कारण, और रोष में है क्षात्र-धर्म की विलीन होती हुई परम्परा के कारण। उत्तेजित रुग्मवान (वत्स सेनापति) प्रवेश करके कहता है, "कौशाम्बी में इन पाखण्डी श्रमणों का प्रवेश न हो।" इस एक वाक्य में ही दर्शकों के कलेजे धड़कने लगते हैं। सेनापति न जाने क्या कर बैठे। पर "तथागत और उनके निरस्त्र श्रमण-शिष्यों