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हरिकृष्ण प्रेमी' जयदेव-हाँ, बुझा दो और आकाश से चन्द्रमा को भी हटा दो। मधु०-वयों ?
धर्मदास-अन्धकार होने पर तुम दिखाई पड़े तो हम समझेंगे कि हम उल्लू हैं और नहीं दिखे तो समझेंगे तुम उल्लू हो।
मधु० -अच्छा बाबा, उल्लू में ही हूँ । अब तो घर जानो।"
इस पूरे दृश्य में हँसाते-हँसाते लोट-पोट कर देने की शक्ति है। हास्य के समावेश से 'प्रेमी' जी के नाटक बड़े जानदार बन गए हैं और उनसे दर्शकों को काफी रसानुभूति होती है।