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हिन्दी नाटककार रम्यम् ।' इसे पंचम वेद भी कहा जाता है। आस्तिक हिन्दुओं की आस्थानुसार वेद भगवान् की वाणी है। वेद के समान ही नाटक को बताना उसके अलौकिक महत्त्व को प्रकट करता है । वेद को कथा में भले ही अनेक व्यक्ति न जायं, पर नाटक में प्रायः सभी पुरुष जाते हैं-वे बड़ी तन्मयता से इसके अभिनय का आनन्द लेते हैं। भरतमुनि ने तो यहाँ तक माना है कि योग,कर्म, सारे-शास्त्र और समस्त शिल्पों का नाटक में समावेश है । नाटक के द्वारा देश की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा होती है। इतिहास, पुराण, सभ्यता का विकास सभी कुछ नाटक के द्वारा जीता-जागता हमारी आँखों के सामने उपस्थित होता रहता है। नाटक का विकास
विश्व-भर के मानव की प्रादि वासना, सहज प्रकृति, मौलिक प्रवृत्ति, दुःखसुख की भावना और अनुभूति समान हैं। समस्त विश्व में मानव-जीवन का विकास समान परिस्थितियों में समान रूप में ही हुआ । कला, सभ्यता, संस्कृति के विकास के इतिहास में हम अधिक अन्तर नहीं पाते । समाज-संस्था ने भी युगों की घाटियों में होकर समान ढंग पर ही उन्नति की । धरातल के विभिन्न भागों में नाटक का उदय और विकास भी समान रूप और रीति से हुआ। ___सभी देशों में वीर-पूजाओं, देवार्चनोत्सवों ऋतु-पर्यो, धार्मिक अनुष्ठानों से नाटक का उदय हुआ । वीर-पूजा सभी जातियों और देशों की प्राचीनतम परम्परा है। पूर्वजों के श्राद्ध-दिवस पर उनकी आत्मा को प्रसन्न करने, उनसे सफलता का वरदान और साहस की प्रेरणा पाने के लिए नाच-गानों का श्रायोजन प्राक-ऐतिहासिक प्रथा है । नृत्य-गान में उनके जीवन की घटनाएं भी सम्मिलित की जाने लगी और कुछ काल बाद संवादों का भी समावेश हो गया। यही क्रम देवार्चन में रहा । देवार्चन भी वीर-पूजा का ही रूप है। प्रायः सभी जातियों के देवता वीर रस-प्रधान हैं। संवाद और जीवन-घटनाओं का समावेश होते ही नाटक अस्तित्व में या जाता है। उसमें कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, रस-उद्देश्य, अभिनय-सभी तत्त्व उपस्थित हो जाते हैं। हैं। नृत्य-गान जब विकसित होकर नाटकीय रूप धारण करने लगे, उनमें उपरोक्त सभी नाटकीय तत्त्व उपस्थित रहने लगेंगे। भारतीय महावत अनुष्ठान' . में कुमारियों के नृत्य-गान और प्रकाशात वैश्य, शूद्रों के झगड़े में नाटकीय तत्त्व बीज रूप में मिल जाते हैं।
यूनान में दुःखान्त नाटकों का प्रारम्भ डायोनिसस के अनुकरण पर किये