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हिन्दी के नाटककार
तो राह का भिखारी हूँ - पर उससे भी अधिक दुखी हूँ। अब तो चला नहीं जाता । ( एक पेड़ के नीचे बैठता है ) हाय चित्तौड़ का न जाने क्या हुआ ? " - विक्रम की मानस कथा स्पष्ट है ।
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से 'स्वप्न भंग' प्रेमी जी का सर्वश्रेष्ठ नाटक है । इसमें सभी चरित्रों का विकास स्वाभाविक और विस्तृत हुआ है 1 प्रेमी के किसी भी अन्य नाटक में चरित्रों का उद्घाटन इतना सुन्दर नहीं । औरंगजेब, रोशनारा, जहाँनारा, दारा, नादिरा, प्रकाश - सभी में चरित्र - विकास उत्तम है । इस नाटक में प्रेमी ने चरित्रों के बाहरी चोले को त्यागकर उनके अन्तर से प्रवेश किया है ।
औरंगजेब कट्टर, निरंकुश, निर्दय, निर्मल, कठोर, वीर, धूर्त, निर्भय योद्धा है । सहृदयता या भावुकता की धड़कन उसके हृदय में कभी बजती नहीं । सम्राट् बनने की महत्त्वाकांक्षा उससे उसके भाइयों का वध करा देती है । पिता को वह पानी तक के लिए तरसाता है । वह दानव है - एक दुर्दमनीय शैतान ईमान का चोला पहनकर उसके हृदय में जड़ जमाए है । फिर भी जब वह महत्त्वाकांक्षा के घटाटोप से मुक्त क्षणों में श्राता है, जब कपट की भीड़-भाड़ से वह निकलता है, तब उसके हृदय की दुविधापूर्ण स्थिति का चित्र सामने आ जाता है, "संसार में सब प्राणियों के स्नेह से वंचित औरंगज़ेब ! तुझे बहन रोशनारा के अतिरिक्त और भी कोई प्यार करता है ? नहीं ! रोशनारा का स्नेह मरुभूमि में जलते हुए मेरे जल-हीन जीवन का एक मात्र सरोवर है । वह कयामत से भी तेज लड़की - वह तलवार से भी अधिक तीखी धार वाली लड़की - वह बिजली से भी अधिक ज्योतित आखों वाली लड़की - प्राज औरंगजेब को सर्वनाश की प्राग लगाने को कह रही है । मैं मंत्र-मुग्ध साँप की तरह उस सपेरिन के इशारे जो वह कहेगी, वही करूँगा ।"
पर नाचूँगा ।
क़यामत से ज्यादा तेज लड़की, वह तलवार से भी ज्यादा तीखी धारवाली लड़की, वह बिजली से भी अधिक ज्योतित श्राँखों वाली लडकी - जो आगरा में बैठी हुई राजनैतिक तूफान का संचालन करती रहती है, विनाश से खेलती है चिनगारियों से क्रीड़ा करती है, राजनीतिक षड्यंत्रों के जाल बुनती है, वह भी कभी-कभी अपने कोमल नारीत्व को पहचानती है - अपने हृदय की सुकुमार भावना को समझने का यत्न करती है । उसके हृदय का चित्र उसके ही शब्दों में स्पष्ट होता है - "ईर्ष्या की आँधी में उड़कर मैं कहाँ आ गई हूँ। मैं नारी हूँ । नारी का अस्तित्व प्रेम