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गोविन्दवल्लभ पन्त
११६ पात्रों को कम संख्या होना या पात्रों की भीड़ न होना भी अभिनय में बड़ा सहायक होता है। इस दृष्टि से भी पन्तजी के सभी नाटक अभिनय के उपयुक्त ठहरते हैं। 'वरमाला' में ४-५, राजमुकुट में कुल छोटे-बड़े १६-१७ 'अंगूर की बेटी' में 8-१०, 'अन्तपुर का छिद्र' में ५ पात्र हैं। 'राजमुकट' में अधिक पात्र हैं, पर प्रमुख उसमें भी १०-१२ से अधिक नहीं। ___ चरित्र की स्वाभाविकता और उत्थान-पतन भी अभिनय में प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। यद्यपि पन्तजी के नाटकों में चरित्रों में प्रसाद' और 'प्रेमी' के चरित्रों के समान बेबसी, अाकुलता, शक्ति और गहनता नहीं और न लक्ष्मीनारायण मिश्र के चरित्रों-जैसा व्यक्ति-वैचित्र्य है, तो भी अभिनय के लिए उनमें काफी जान है। 'राज-मुकुट' के सभी चरित्र प्राणवान और जीवित हैं । 'अन्तःपुर का छिद्र' में मागंधिनी में भी नारी-द्वष का बहुत विकास देखा जा सकता है। 'वरमाला' में वैशालिनी और अवीक्षित के चरित्रों में नाटकीय परिवर्तन मिलता है। ___ पन्त जी की भाषा भी अभिनय के अत्यन्त उपयुक्त है। भाषा सरल, सुबोध भावुकता भरी सशक्त और पात्रोचित है। पन्तजी के सम्बादों की सबसे बड़ी विशेषता है-उनकी संक्षिप्तता और गतिशीलता। संवादों का छोटा होना अभिनय के लिए बहुत बड़ा गुण समझा जाना चाहिए । 'अन्तःपुर का छिद्र' से एक उदाहरण देना उचित होगा
"उदयन ( साश्चर्य )-रहस्य और विष ? । मागंधिनी–हाँ, बल्कि दोनों मिलकर विषाक्त रहस्य । उदयन ( मागंधिनी की ओर बढकर )-कहाँ ? मांगधिनी-राजरानी पद्मावती के कक्ष में उदयन-तुमने अपनी आँखों से देखा । मांगधिनी–हाँ, मैं उसे सूर्य के आलोक में दिखा भी सकती हूँ। उदयन-मुझे भी
मांगधिनी–हाँ महाराज केवल आप ही को तो, नित्य सन्ध्यासमय ।
उदयन-मेरा धैर्य छुट गया है। आज ही दिखा सकती हो ? अभी समझा सकती हो?''
हर एक नाटक में एक-दो स्थलों को छोड़कर, सभी अवसरों पर संवाद संक्षिप्त और उपयुक्त हैं। अभिनेयता का पन्तजी ने इतना ध्यान रखा है कि, उनके नाटकों पर पारसी-रंगमंच का प्रभाव भी पड़ा है। पन्त जी में