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गोविन्दवल्लभ पन्त
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उनके नाटकों पर दिखाई देता है-सब कलाओं को मिलाकर उन्होंने नाट्यरचना की । उनको कला में सबसे अधिक तत्त्व है अभिनेयता का। रंगमंच का पन्तजी ने बहुत अधिक ध्यान रखा है। वातावरण उपस्थित करने में भी वह खूब पटु हैं । अभिनेयता की अधिकता के कारण 'चरित्र-चित्रण' तत्त्व कुछ निर्बल पड़ गया है। ____ संस्कृत-नाटकों के समान उनके अधिकतर नाटकों में मंगलाचरण है। 'वरमाला' के प्रथम दृश्य में वैशालिनी रंगमंच पर गाती हुए आती है। यह गीत मंगलाचरण का ही रूप है :
"हों शूल पग के कोमल कुसुम-राशि,
___ करके सुमन को सफल प्रभु बनाओ।" विश्व-मंगल की कामना का ही रूप है । राजमुकुट' में भी ‘मंगलमय मंगल कर" कहकर मंगलाचरण किया गया है। 'अन्तपुर का छिद्र' में भी नाटक प्रारम्भ होने से पहले नाटक के सब पात्र मिलकर ईश-वंदना करते हैं:
"कर्म-वश होवे चचल काल, दिशा का मिट जावे भ्रम-जाल । विदु में विराट का लय हो,
विजय में छिपी पराजय हो।" 'अंगूर की बेटी' आधुनिक सामाजिक जीवन का समस्या-नाटक होते भी मंगलाचरण से नहीं बचा । कामिनी सन्ध्या को घर में प्रकाश करते हुए जो गीत गाती है, वह मंगलाचरण ही है । वह गाती है
श्याम चरण कमल-चरण शरण हूँ तुम्हारी
तुम दयालु में अनाथ,
पकड़ गहो अाज हाथ,
तारी तुमने अहिल्या, द्रोपदी उबारी। मंगलाचरण के अतिरिक्त कहीं-कहीं भारत-वाक्य के भी दर्शन हो जाते हैं। 'राज-मुकुट' के अन्त में उदयसिंह का राज-तिलक होते समय बालिकाएं नृत्य करती हुई गाती है :
"चिरजीवी राज रहे राजन् । प्रजा सुखी होवे सुवेश में, फैले कविता-कथा देश में,