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ज्ञान और कर्म |
[ प्रथम भाग
है । किन्तु लाचार और निरुपाय हो कर आत्मरक्षा के उस प्रकारके कामका सहारा लिया जाता है, और वह एक प्रकारका आपद्धर्म है । पृथ्वी पर बुरे आदमी हैं, इसीसे भले आदमियोंको भी समय समय पर विवश होकर बुरे काम करने पड़ते हैं । किन्तु इसी कारणसे वैसे कार्य या वैसे कार्योंके उत्तेजक भावों या इच्छाओंका अनुमोदन नहीं किया जा सकता । वे सब भाव या इच्छाएँ मनुष्यके मनमें प्रकट अवश्य होती हैं, किन्तु उनकी प्रबलता नीच प्रकृतिका लक्षण है, और उन्हें शान्त रखना सुबुद्धिका कर्तव्य है । क्रोध, प्रतिहिंसा, विद्वेष आदि भाव जब मनुष्यके मनमें उदित होते हैं, अनेकोंके मनमें स्थान पाते हैं, और अनेक समय कार्य करते हैं, तब वे घोषणके योग्य हैं, यह बात अगर कही जाय, तो यह भी कहना पड़ेगा कि मनुष्य के नाखून और दाँत हैं, और असभ्य जातियाँ पशुओं की तरह शत्रु पर आक्रमण कर -- में उनका व्यवहार करती हैं और वे उनके काम आते हैं, इस लिए मनु-यको भी नाखून और दाँतोंका वैसा ही व्यवहार सीखना चाहिए। मतलब यह कि मनुष्य जितना ही नीचेकी श्रेणीसे ऊपरकी श्रेणी में उठता है उतना ही निकृष्ट प्रकृति छोड़ कर उत्कृष्ट प्रकृतिको ग्रहण करता है । यह बात ठीक. नहीं है कि भले-बुरे सब तरहके गुणोंका यथायोग्य विकास मनुष्यकी सर्वां - गीन पूर्णता के लिए आवश्यक है । परन्तु जब तक पृथ्वीके सभी लोग भले न. हो जायेंगे, जब तक कुछ बुरे लोग रहेंगे, तब तक कोई पूर्ण रूपसे भला. नहीं हो सकेगा, तब तक बुरेके संसर्गसे भलेको भी कुछ बुरा होना ही होगा, और बुरेके दमनके लिए, या बुरेके द्वारा अपना या औरका जो अनिष्ट होता है उसे रोकनेके लिए, भलेको भी लाचार हो कर अन्यका अनिष्ट करनेवाले, काम करने पड़ेंगे । किन्तु अन्यका अनिष्ट करनेकी इच्छाका दमन करना और यथाशक्ति अन्यका अनिष्ट करनेसे निवृत्त रहना सबका कर्तव्य है ।
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इस तरहके यत्न और शिक्षाके द्वारा लोग क्रोध, प्रतिहिंसा, विद्वेष आदि भावोंको भूल जा कर आत्मरक्षा में असमर्थ हो जायँगे, ऐसी आशंका करनेका प्रयोजन नहीं है । सब स्वार्थपर प्रवृत्तियाँ इतनी प्रबल हैं कि उनके एकदम लुप्त होनेकी संभावना नहीं है । किन्तु यदि बहुत यत्न, शिक्षा और अभ्यासके. फलसे बीच बीच में दो-चार मनुष्य इन सब प्रवृत्तियों को भूल जा सकें तो कहना होगा कि उन्होंने ही पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त किया है।
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