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ज्ञान और कमे।
[प्रथम भाग
मैं अर्थात् मेरे आत्माके सिवा और पर हैं, सदा मेरे वश नहीं हैं, यहाँतक कि जिसे सबकी अपेक्षा अपना कहते हैं वह अपना शरीर भी मेरे वश नहीं हैं, रोगग्रस्त होनेपर मैं अपने हाथ-पैरोंको भी इच्छाके अनुसार चला नहीं सकता, तब आत्मासे इतर वस्तुके ऊपर जो कुछ निर्भर है उससे उत्पन्न सुखकी कामना निष्फल है। मेरा सुख केवल मेरे ही ऊपर निर्भर होगा, अन्य किसी वस्तु या मनुष्यपर नहीं निर्भर होगा, यह धारणा और उसके अनुसार चित्तको स्थिर करना ही सच्चे सुखके लाभका एकमात्र उपाय है। यहाँपर शंकराचार्य भगवान्का यह अमूल्य वाक्य याद आता है कि
" स्वानन्दभावे परितुष्टमन्तः सुशान्तसन्द्रियवृत्तिमन्तः । अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥" "जो अप आनन्दमें आप ही सन्तुष्ट हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ और उनकी वृतियाँ संयत हैं, जो दिन-रात ब्रह्ममें अनुरक्त रहते हैं, वे कौपीनधारी होने पर भी निश्चय ही भाग्यशाली हैं " विद्याभिमानी लोग समझते हैं कि वे विद्याके द्वारा सब कुछ वश कर लेंगे । बलका अभिमान रखनेवाले समझते हैं कि वे बलके द्वारा सब अपने वश कर लेंगे। किन्तु विद्याके अनुशीलन या बलके परिचालनके लिए जिस देहकी आवश्यकता है वह देह ही उनके वश नहीं है। दुःखसे बचने और सुख पानेके लिए सभी जीव निरन्तर व्यस्त हैं, किन्तु पराधीन सुखकी खोज अनेक जगह विफल और सभी जगह कष्टकर है। सच्चा सुख मनुष्यके अपने हाथमें है, उससे अन्य किसीका अनिष्ट नहीं होता। आत्मज्ञान ही उसका उपादान है। वह सुख प्राप्त करना कठिन है, मगर असाध्य नहीं है । सामान्य यश पानेके लिए जो मनुष्य कितने दुःसह क्लेशोंको बिना किसी रुकावटके सह सकता है, वह नित्य परमानन्द प्राप्त करनेके लिए अनित्य दुःखकी अवहेला नहीं कर सकेगा ?
अन्तर्जगत्की और एक श्रेणीकी क्रिया है, जिसे इच्छा कहते हैं। यह क्रिया ज्ञानकी अपेक्षा कर्मके साथ विशेष संबन्ध रखती है, और इस पुस्तकके दूसरे भाग अर्थात् कर्मविषयक भागमें इसकी विशेष आलोचनाका स्थान है।