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ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग होनेके पहले आत्मरक्षाके लिए सावधान होना ही उसका युक्तिसिद्ध उपाय है। पक्षान्तरमें, परार्थपर भावके कार्य द्वारा सच्चे स्वार्थसाधनमें विघ्न न पड़कर अनेक जगह स्वार्थसाधनकी सहायता ही होती है।
जैसे रोगग्रस्त होकर बादको रोगमुक्त होनेकी चेष्टाकी अपेक्षा, पहलेहीसे. रोगसे बचनेकी चेष्टा करना अधिकतर युक्तिसिद्ध है, वैसे ही अनिष्टके चक्रमें पड़कर अनिष्टकारीको सताने या बदला लेनेकी चेष्टाकी अपेक्षा पहलेहीसे. अनिष्टसे बचनेकी चेष्टा अधिकतर युक्तिसिद्ध है । मगर हाँ, सब समय वह साध्य नहीं होती। जब साध्य न हो तब अनिष्टकारीको सताना या उससे बदला लेना आत्मरक्षाके लिए आवश्यक होने पर उसे एक प्रकारका आपद्धर्म कह कर स्वीकार करना होता है। ' ___ऊपर कहा गया है, परार्थपर भावके कार्य द्वारा सच्चे स्वार्थमें विघ्न नहीं होता । फलतः यद्यपि जीवजगत्के निचले स्तरमें, और परार्थके विरोधकी जगह, स्वार्थपर भाव ही कर्मका प्रधान प्रवर्तक होता है, किन्तु उच्च स्तरमेंअर्थात् मनुष्योंमें-स्वार्थ और परार्थ इतने अविच्छिन्न रूपसे बँधे हुए हैं कि सच्चा स्वार्थ परार्थको छोड़कर हो ही नहीं सकता । स्थूलदर्शी और अदूरदर्शी लोग सोच सकते हैं कि परार्थको अग्राह्य करके स्वार्थ साधन सहज है, किन्तु कुछ सूक्ष्मदृष्टि और दूरदृष्टिके साथ देखनेसे ही जान पड़ता है कि वह स्वार्थसाधन न तो सुसाध्य है और न स्थायी ही हो सकता है। कारण, पहले तो मैं ऐसा करूँगा तो मेरी सी प्रकृतिके लोग मेरे स्वार्थको नष्ट करनेकी चेष्टा करेंगे और अकेले में उसे रोक नहीं सकूँगा । दूसरे, जो लोग मेरी सी प्रकृतिके नहीं हैं, मेरी अपेक्षा भले हैं, वे मेरा और अनिष्ट भले ही न करें मगर मुझे दमन करनेकी चेष्टा अवश्य करेंगे। तीसरे, यद्यपि दूसरा कोई कुछ भी न करे, तोभी मैं अपने ही कार्यसे आप अत्यन्त असुखी होऊँगा । क्यों कि. मेरी आकांक्षा असंयत रूपसे बढ़ती रहेगी और मुझे असन्तोष और अशान्तिसे उत्पन्न दुःख भोगना पड़ेगा। __ स्वार्थ और परार्थमें जो विरोध है, उसका सामञ्जस्य करना बुद्धिका एकप्रधान कार्य है।
सुख-दुःख केवल अनुभव-क्रियाके नहीं, अन्तर्जगत्की सभी क्रियाओंके अविच्छिन्न संगी हैं । कोई कोई लोग सन्देह करते हैं कि यह बात