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तीसरा अध्याय ]
अन्तर्जगत् ।
जान पड़ता है कि प्रथम संज्ञाके साथ ही साथ आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, और आत्मज्ञानको संज्ञाका दूसरा नाम भी अगर कहें तो कह सकते हैं।
पीछे क्रमशः अन्तःकरणकी जुदी जुदी शक्तियों या क्रियाओं और बाहरकी भिन्न भिन्न वस्तुओं और विषयोंके संबंधमें ज्ञान उत्पन्न होता है । बहिजगत् और अन्तर्जगत्के परस्पर घात-प्रतिघातसे ज्ञानका विस्तार बढ़ता जाता है । वह घात-प्रतिघात समझनेके लिए इस अन्तर्जगत्-शीर्षक अध्यायमें ही बहिर्जगत्की दो-एक बातोंकी अवतारणा करनेकी आवश्यकता है। ___ इस जगह पहले ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन शाक्तयों या क्रियाओंका नाम लिया गया है वे किसकी शक्ति या क्रिया हैं ?
जड़वादी लोग कहते हैं कि अन्तर्जगत्की क्रियाएँ देहकी अर्थात् सजीव देहकी क्रिया हैं । किन्तु चैतन्यवादी लोग एकमत नहीं हैं। उनमेंसे कोई कहते हैं कि वे मनकी या अहंकारकी क्रिया हैं, और कोई कहते हैं कि वे आत्माकी क्रिया हैं । जड़वादके विरुद्ध जो सब आपत्तियाँ हैं उनका उल्लेख 'ज्ञाता' शीर्षक अध्यायमें हो चुका है। प्रथमोक्त श्रेणीके चैतन्यवादियोंके मतमें आत्मा निर्विकार और निष्क्रिय है, और अन्तर्जगत्की जो कुछ क्रियाएँ हैं वे मनकी या अहंकारकी हैं । आत्मा देहबन्धनमुक्त और पूर्ण ज्ञानको प्राप्त होने पर किस भावको धारण करेगा, सो ठीक कहा नहीं जा सकता । किन्तु देहयुक्त और अपूर्णज्ञानविशिष्ट आत्माके साथ मन या अहंकारके अलगावका कोई प्रमाण, अन्तर्जगत्के एकमात्र साक्षी आत्मासे पूछने पर, प्राप्त नहीं होता । अतएव अन्तर्जगत्की क्रिया आदि आत्माकी क्रिया ही मानी जायँगी । ' बहिर्जगत्के संसर्गमें अन्तर्जगत्की जो सब क्रियाएँ होती हैं उनके पहले ही इन्द्रियस्फुरण होता है । इन्द्रियाँ द्विविध हैं। चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा, त्वक् ये पाँच ज्ञानेद्रिय हैं, और हाथ-पैर आदि पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। इन दोनों प्रकारकी इन्द्रियोंके कार्य सब शरीरमें व्याप्त स्नायुजाल और मस्तकके अभ्यंतर भागमें स्थित मस्तिष्कके द्वारा संपन्न होते हैं। उस स्नायुजालकी और मस्तिष्ककी गठन ओर क्रियाका विवरण विस्तारके साथ लिखना इस ग्रन्थका उद्देश्य नहीं है। उसे जाननेकी जिन पाठकोंको इच्छा
* सांख्यदर्शन अ० २, सूत्र २९ और वैशेषिक दर्शनका ३ अध्याय देखो।