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तीसरा अध्याय। अन्तर्जगत्।
ज्ञेयके सम्बन्धमें साधारणतः कई एक बातें पहलेके अध्यायमें कही जा चुकी हैं । ज्ञेय पदार्थके दो विभाग है, अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् । उन्हीं दोनों विभागोंकी अर्थात् अन्तर्जगत् और बहिर्जगतकी कुछ आलोचना क्रमशः इस अध्याय और आगेके अध्यायमें की जायगी। इन दोनों विभागोंमेंसे अन्तर्जगत्के साथ हमारा बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस लिए उसीका वर्णन पहले किया जायगा।
अन्तर्जगत् हर एक ज्ञाताका भिन्न है। मेरा जो अन्तर्जगत् है वह अन्य, ज्ञाताके लिए बहिर्जगत है, और अन्यका अन्तर्जगत् मेरे लिए बहिर्जगत् है। अन्तर्जगत्के सम्बन्धका ज्ञान अन्तर्दृष्टिके द्वारा प्राप्य है। सुभीतेके लिए यहाँ वह ज्ञान संज्ञाके नामसे अभिहित होगा। __ मेरे हृदयमें क्या हो रहा है, इस ओर मन लगाने या ध्यान देनेसे ही उसे मैं जान सकता हूँ। जाग्रत् अवस्थाकी हर घड़ीकी बात जानी जाती है। निद्रित अवस्थाकी भी बहुत सी बातें उसी अवस्था में स्वप्नरूपसे जान सकते हैं ओर जगने पर भी याद रहती हैं। किन्तु अपनी गहरी सुषुप्तिके समय मुझे उस समयकी अपने अन्तर्जगत्की किसी बातकी संज्ञा नहीं रहती, और जागने पर भी कुछ याद नहीं रहता।
भीतर या बाहरके किसी विषयमें एकदम पूर्णरूपसे मनोनिवेश होने पर उस समय और किसी विषयकी संज्ञा नहीं रहती। यह संज्ञाका एक साधारण नियम है।