________________
दूसरा अध्याय ]
ज्ञेय।
लक कल्पनाएँ होती हैं, और वैज्ञानिक पण्डित लोग न-जाने कितनी अनिश्चित आलोचनायें किया करते हैं (१)।
ज्ञाताकी अपूर्णताके कारण ज्ञेयका अपूर्ण विकास होता है । अब यह देखना चाहिए कि ज्ञाताका अन्य कोई दोष या गुण ज्ञेय पदार्थको स्पर्श करता है या नहीं। यहाँ पर व्यक्तिविशेषके दोष-गुण (जैसे, किसीके आँख-कान आदिके विशेष दोष-गुण) की बात नहीं कही जा रही है। ज्ञाताके साधारण दोष-गुणकी बात ही विचारणीय है। __ पहले तो यह अवश्य ही स्वीकार करना होगा कि ज्ञेय जो है सो ज्ञाताके ज्ञानके नियमके अधीन है। अर्थात् हमारा ज्ञान जिसनियमके अधीन है कोई ज्ञेय विषय उसके विपरीत भावको धारण कर सकता है, ऐसा हम नहीं सोच सकते । पाश्चात्य न्यायशास्त्रियोंके मतमें हमारे (२)ज्ञानके नियम तीन हैं:
-स्वरूपनियम-जो जो है वह वही है। जैसे मनुष्य मनुष्य ही है। २-वैपरीत्य नियम--कोई पदार्थ एक ही समयमें दो परस्पर विपरीत रूप नहीं धारण कर सकता। जैसे, कोई पदार्थ एक ही समयमें शुक्ल और अशुक्ल नहीं हो सकता। ___३-विकल्प प्रतिषेधनियम-कोई बात और उसके विपरीत बात, दोनों सत्य या दोनों मिथ्या नही हो सकतीं। एक सत्य और दूसरी मिथ्या अवश्य ही होगी । जैसे, ‘क शुक्लवर्ण है' और ' क शुक्लवर्ण नहीं है, ' इन दोनों बातोंमें एक सत्य और दूसरी मिथ्या अवश्य ही होगी।
देश और काल ज्ञाताके ज्ञानके नियममात्र हैं, या ये ज्ञेयविषय हैं, इसमें अनेक मतभेद हैं । प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक कान्टके मतमें देश और काल ज्ञेय पदार्थ नहीं हैं, केवल ज्ञाताके नियम हैं, जो पदार्थमें आरोपित हैं (३)। हर्बर्ट स्पेन्सरके मतमें देश और काल ज्ञेय विषय हैं, ज्ञाताके ज्ञानके नियम नहीं हैं (४)।
जिनके मतमें देश और काल ज्ञेय पदार्थ नहीं हैं, केवल ज्ञाताके ज्ञानके नियममात्र हैं, वे अपने मतका समर्थन करनेके लिए इस तरह तर्क करते हैं
(१) Karl pearson's Grammar of Science ch. VII देखो। (२) Bain's Logic part I. P. 16 aati (3) Kant's Critique of pure Reason, Max Maller's Translation Vol. II page. 20, 27. (४) H. Spencer's First Principles, pt. I ch. III.