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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
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कराकर उन्हें अपना कार्य सिद्ध करनेके उपयोगी बना लेना होता है। किन्तु कर्मफललाभकी प्रचण्ड उत्तेजनामें चैतन्य जगत्की सारी छुपीहुई शक्तियोंकी उपेक्षा करके सकाम कर्मी उनके साथ संमुख-संग्राममें प्रवृत्त होता है, और अनेक जगह इससे वांछित फल न मिलकर कुफल ही फलता है। इस तरह सकाम कर्मी लोग संकल्पित कार्यके साधनमें व्यग्र होकर, अन्यके सुखःदुख या हिताहित पर दृष्टिपात न करके, उसके द्वारा हो सकनेवाली दूसरेसे शत्रुताका खयाल न करते हुए, कार्यमें अग्रसर होते हैं, और अपना इष्ट सिद्ध हो या न हो, अन्य लोगोंका बहुत कुछ अनिष्ट कर डालते हैं। सकाम कर्म इस तरह अनेक जगह कर्मीको मोहसे अंधा बना देता है, और उसे जगत्की छुपीहुई शक्तिके साथ वृथा-संग्राममें लगा देता है । निष्काम कर्मी भी कर्तव्यसाधनमें सचेष्ट अवश्य होते हैं, किन्तु वे जड़जगत् या चैतन्यजगत्की किसी शक्तिकी उपेक्षा नहीं करते; बल्कि जगत्की सभी शक्तियोंकी सहायता लेकर कर्तव्य-साधनमें अग्रसर होते हैं । अतएव यह बात कही जा सकती है कि सकाम कर्मका उद्देश्य अनेक जगह जगत्की अप्रत्यक्ष शक्तिसे संग्राम करके उसके द्वारा कार्य-साधन करना है, और निष्काम कर्मका उद्देश्य उसी शक्तिकी सहायतासे कर्तव्य-पालन करना है।
कर्मसे छुटकारा पानेका अर्थ ।
ऊपर कहा गया है कि कर्मका चरम उद्देश्य कर्मसे छुटकारा पाना है। किन्तु इसमें आपत्ति हो सकती है कि वैसा होना कैसे संभव है ? गतिमात्र जितनी हैं, वे कर्म हैं । जगत् दम भरके लिए भी स्थिर नहीं है। वह निरन्तर गतिशील, अर्थात् कर्मशील है। अतएव ब्रह्मकी पूर्ण निखिलता अपरिवर्तनशील और निष्क्रिय होने पर भी, उसका व्यक्त अंश-यह दिखाई देता हुआ जगत्-कर्मशील है। अतएव कर्मकी निवृत्ति कैसे होगी ? इसके उत्तरमें इतना ही कहा जा सकता है कि ब्रह्मसे बिछड़ा हुआ जीव “ मैंने यह कार्य किया, मैं यह कार्य करता हूँ" इस अहं-ज्ञानसे, ब्रह्मके साथ मिलनके द्वारा, छुटकारा (मुक्ति) प्राप्त करेगा । और, उसके बाद ब्रह्मकी व्यक्तशक्ति कर्ममें लगी रहने पर भी, ब्रह्मलीन जीव फिर अपनेको कर्ममें नियुक्त नहीं जानेगा।