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રેડર
ज्ञान और कर्म । [ द्वितीय भाग जीवन के प्रारम्भ में जैसे कौकी ओर प्रवृत्ति अनिवार्य है, वैसे ही जीवनके अंतिम भागमें कर्मोंकी ओरसे निवृत्ति भी अवश्यंभावी है। लेकिन यथासम्भव कर्तव्य कर्मोको सम्पन्न और हृदयकी वासनाओंको परितृप्त करके, मुक्तिचिन्ताके लिए समय रहते-रहते, जो निवृत्तिमार्गगामी हो सकता है, वही यथार्थ सुखी है, और उसीके कर्म कर्मके यथार्थ उद्देश्य (कमोसे निवृत्ति मिलने ) को पूरा करते हैं।
- सकाम और निष्काम कर्मी । कर्मके उद्देश्यकी आलोचनामें देखा गया कि वह उद्देश्य पहले तो कर्मफलकी कामना है और अन्तको परिणाममें उस कामनाकी निवृत्ति । अतएव उसके अनुसार कर्मीकी सकाम और निष्काम ये दो श्रेणियाँ हो सकती हैं। सकाम कर्मीके कर्मका उद्देश्य कर्मफलका लाभ है, और उसकी कर्मसे निवृत्ति यद्यपि परिणाममें अवश्य ही होगी-तथापि साक्षात् सम्बन्धमें, उसके कर्म करनेसे नहीं होती, उसकी कर्म करनेकी शक्ति घटनेके साथ साथ दिखाई पड़ती है। केवल निष्काम कर्मीके कर्म करनेका उद्देश्य कर्मसे निवृत्ति है। इससे बहुत लोग यह सोच सकते हैं कि तब तो सकाम कर्मी ही श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें ' कर्मसे निवृत्ति' नहीं है, अर्थात् वे कर्म बराबर करते रहते हैं, और उन्हींके द्वारा पृथ्वीका अधिक उपकार हो सकता है। मगर कुछ ध्यान देकर देखनेसे समझमें आ जायगा कि यह खयाल ठीक नहीं है।
निष्कामकर्मकी श्रेष्ठता। सच है कि सकाम कर्मीके कामोंसे पृथ्वीका हित हो सकता है, किन्तु मूलमें उनका प्रेरक स्वार्थ है, और कर्मीके स्वार्थके लिए उन कर्मोसे जहाँतक औरोंका हित होना आवश्यक है, केवल वहीं तक उनसे पृथ्वीका हित होगा। सकाम कर्म करनेवाला अगर देखे कि चुपचाप अलग एकान्तमें पृथ्वीका कोई विशेष हित करनेसे उसमें यश पानेकी संभावना थोड़ी है; किन्तु प्रकाश्यरूपसे अपेक्षाकृत अल्प-हितकर कार्य करनेसे उसमें बहुत कुछ यश प्राप्त होगा, तो वह प्रथमोक्त कामको छोड़कर पिछला काम ही करेगा। अनुष्ठित कार्यको पूरा करने में निष्काम कमकिी अपेक्षा सकामकर्मी अधिकतर दृढव्रत हो सकता है, किन्तु कार्यसाधनका उपाय निकालने में निष्कामकर्मी जहाँतक हिताहितकी विवेचना करेगा, सकाम कर्मीका वहाँतक विवेचना करना असंभव