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सातवाँ अध्याय। कर्मका उद्देश ।
कर्मके सम्बन्धमें बहुतसी बातें कही गई हैं; अब कर्मके उद्देश्य के सम्बन्धमें दो चार बातें कहकर यह पुस्तक समाप्त की जायगी।
हमें अपने अभावों और अपनी अपूर्णताओंके कारण अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। उन अभावों और अपूर्णताओंकी पूर्ति के द्वारा दुःखको दूर करने और सुखको पानेके लिए हम निरन्तर कर्ममें लगे रहते हैं । किन्तु यदि यही बात है, तो हम सुखकर कर्मको न करके, कर्तव्यकर्म क्या है-यह जाननेकी और उसी कर्मको करनेकी चेष्टा क्यों करते हैं ? क्या सुखलाभ ही कर्मका चरम उद्देश्य नहीं है ? इसके उत्तरमें संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि कर्मका चरम उद्देश्य सुखलाभ अवश्य है, किन्तु वह सुख क्षणस्थायी या साधारण सुख नहीं है, वह चिरस्थायी परम सुख है, और कर्तव्यकर्म करनेसे ही वह सुख मिलता है । जो अपूर्णता हमारे दुःखोंका कारण है वह अपूर्णता ही यह नहीं देखने देती कि दूरस्थ किन्तु चिरस्थायी परम सुख क्या है, और वही हमें निकटस्थ क्षणस्थायी साधारण सुखकी प्राप्तिके लिए सचेष्ट रखती है। पूर्णज्ञानकी प्राप्ति हो जाने पर हम चिरस्थायी परम सुखको ही सुख समझेंगे, केवल कर्तव्यकर्म ही करेंगे, जो श्रेय है केवल वही हमें प्रेय जान पड़ेगा । किन्तु वह ज्ञान पैदा होनेपर और पूर्णता मिल जानेपर फिर दुःख नहीं रह जायगा, और कर्म करनेकी अधिक चेष्टा भी नहीं रहेगी। जब ज्ञानकी इतनी क्षमता है, तब अर्जुनका यह प्रश्न सभीके मनमें उठेगा कि
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
-गीता ३१